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विषयपरिचय : प्रमाणमीमांसा अनुमान विकल्प । इसमें चूँकि परम्परासे अमिजन्य-धूमस्वलक्षण कारण पड़ रहा है अतः वह प्रमाण है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि-यदि अग्नि न होती तो धूम भी उत्पन्न नहीं हो सकता था, धूम के न होने पर धूमविषयक निर्विकल्पक नहीं हो सकता था, धूम निर्विकल्पक न होता तो धूम सविकल्पक नहीं हो सकता था, धूम सविकल्पक नहीं होता तो व्याप्ति स्मरणकी सहायता लेकर होनेवाला 'अग्निरत्र' यह अनुमान विकल्प भी उत्पन्न नहीं हो सकता था । अतः परम्परासे अनुमानविकल्प स्वविषय सम्बद्धअर्थसे उत्पन्न होनेके कारण प्रमाण है। तात्पर्य यह कि जैसे प्रत्यक्षकी प्रमाणताका मूल आधार है-परमार्थ अर्थक अभावमें नहीं होना, यानी अर्थाविनाभावी होना, तो यदि अनुमान विकल्प भी अविनाभावी अर्थसे परम्परया उत्पन्न होता है तो वह भी उसीकी तरह प्रमाण है।
बौद्ध शब्दका अर्थके साथ सम्बध नहीं मानते, उसके मुख्य कारण ये हैं
(१) वैदिक संस्कृतिमें वेदको अपौरुषेय और स्वतः प्रमाण माना गया है। वैदिक शब्द जब स्वतः प्रमाण हैं तो उन्हें प्रमाणमात्रको स्वतःप्रमाण मानना पड़ा। इनकी प्रक्रिया यह है कि शब्दमें दोष वक्ताके कारण आते हैं । अतः यदि वैदिक शब्दोंका कोई वक्ता ही न माना जाय तो दोष कहाँसे आयेंगे ? इस तरह वैदिक संस्कृतिमें शब्दको स्वतःप्रमाण म
बौद्ध वेदको प्रमाण नहीं मानना चाहते थे, अतः उन्होंने यावत् शब्दविकल्पोंको अप्रमाण कह दिया । उसका कारण उन्होंने यही दिया है कि-शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, वे वस्तुस्वरूपका स्पर्श नहीं करते, वस्तुकी सामर्थ्यसे उत्पन्न नहीं होते, वक्ताकी इच्छाके अनुसार संकेताधीन उनकी प्रवृत्ति है, अतः उनमें स्वतः प्रामाण्य नहीं है । प्रमाणता तो अर्थजन्य निर्विकल्पकमें होती है । सविकल्पकमें प्रमाणता तो उधार ली हुई है । एक बार यदि शब्दका अर्थके साथ सम्बन्ध स्वीकार कर लिया तो उसमें निर्विकल्पक की तरह अर्थसामयंजन्य प्रामाण्य मानना ही पड़ेगा और फिर पीछे यह विवेक करना कठिन हो जायगा कि किस शब्दका अर्थक साथ सम्बन्ध है किसका नहीं। अतः शब्द केवल वक्ताकी उस इच्छाका द्योतन करता है जिस इच्छासे वह शब्दका प्रयोग कर रहा है। इस तरह वैदिक शब्दोंको स्वतःप्रमाण न माननेकी दृष्टिसे शब्दमात्रका या शब्दसंसर्गी विकल्पका अर्थसे साक्षात् सम्बन्ध अस्वीकृत किया गया । (२) परमार्थ अर्थ वस्तुतः शब्दोंके अगोचर है। उसका वास्तविक निजरूप अतिगहन है, उस तक
सम्भव है; क्योंकि शब्दका प्रयोग अन्ततः संकेताधीन ही तो है। मनुष्य वस्तुके स्वरूप को अपनी वासना और संस्कारोंके अनुसार रँगता है और उसे इच्छानुसार संज्ञाएँ देकर विकृत करता है। उदाहरणार्थ-किसी पिंडमें जो कि परमाणुओंके ढेरके सिवाय कुछ नहीं है 'स्त्री' यह संज्ञा शब्दवासनासे ही तो रखी गई है । फिर उसके स्तन आदि अवयवोंमें सौन्दर्यकी कल्पना भी शब्दोंसे ही आई है। वह वस्तुका स्वरूप तो नहीं है। फिर मनुष्य अपनी वासनाके अनुसार उस पिंड यानी परमाणुपुंजमें 'स्त्री' आदि संज्ञाएँ रखकर उनमें अनुरक्त होता है और कर्मबन्धनमें पड़ता है। अतः वस्तुतः 'स्त्री' आदि शब्दों का उद्भव अपनी वासनासे हुआ है उनका वस्तुके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इस तरह 'स्त्री' आदि अनुव्यञ्जक संज्ञाओंको अपरमार्थ कहनेके हेतुसे शब्द और विकल्पमात्रका अर्थसे सम्बन्ध तोड़ दिया गया है।
शब्दोंक
(१) "अनुमानं च लिङ्गसम्बद्धं नियतमर्थ दर्शयति ।" न्याय बि० टी० ॥ (२) "अत एवाह-अर्थस्यासंभवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता ।
प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धतुत्वे समं द्वयम् ॥"-प्र. वार्तिकाल. १११७। (३) “शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितम् ।
तदभावः क्वचित्तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात् । • यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः ॥"-मी० श्लो० चोदनासू० श्लो० ६२-६३ ।
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