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________________ विषयपरिचय : प्रमाणमीमांसा अविसंवादकी प्रायिक स्थिति अकलङ्कदेवके इस विचारके सम्बन्धमें संक्षेपतः पृ० ६२ में निर्देश किया गया है कि हमारे ज्ञानोंमें प्रमाणता और अप्रमाणताकी प्रायः संकीर्ण स्थिति है । कोई ज्ञान सर्वथा प्रमाण या अप्रमाण नहीं है । उसमें विशेष प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'तब व्यवहारमें किसी ज्ञानको प्रमाण या अप्रमाण कहनेका क्या आधार माना जाय ?' इस प्रश्नका उत्तर यह है कि-'ज्ञानोंकी प्रायः संकीर्ण स्थिति होने पर भी जिस ज्ञानमें अविसंवादकी बहलता हो उसे प्रमाण माना जाय तथा विसंवादकी बहुलतामें अप्रमाण । जैसे कि इत्र आदिमें रूप रस गन्ध और स्पर्शके रहनेपर भी गन्धगुणकी उत्कटताके कारण उन्हें 'गन्धद्रव्य' कहते हैं उसी तरह अविसंवादकी बहुलतासे प्रमाण व्यवहार होजायगा ।' अकलङ्कदेवके इस विचारका कारण यह मालूम होता है कि इन्द्रियजन्य क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी स्थिति पूर्ण विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती । स्वल्पशक्तिक इन्द्रियोंकी विचित्र रचनाके कारण इन्द्रियों के द्वारा प्रतिभासित पदार्थ अन्यथा भी होता है। यही कारण है कि आगमिकपरम्परामें इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष न कहकर परोक्ष कहा है। अकलङ्कदेव इस विचारको अष्टशती, लघी० स्ववृत्ति और सिद्धिविनिश्चयमें दृढ़ विश्वासके साथ उपस्थित करते हैं। आ० विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें तो उसकी व्याख्या की ही है, साथही साथ वे अकलङ्कके उक्त विचारका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें भी पूर्ण समर्थन करते हैं । पर आगे इस विचारकी परम्परा नहीं चली । अविसंवादित्वका प्रकार इस तरह जब अविसंवादी ज्ञानकी ही प्रमाणता स्थापित हो गई तब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि कौन ज्ञान अविसंवादी कहा जाय ? सामान्यतया अविसंवादीका स्वरूप यही है कि जिस ज्ञानमें जो प्रतिभासित हो वही यदि प्राप्त हो जाय तो वह ज्ञान अविसंवादी कहा जाता है। दूसरे शब्दोंमें बाह्यार्थकी यथावत् प्राप्ति और अप्राप्तिपर अविसंवाद और विसंवाद निर्भर हैं । बौद्ध परम्परामें विज्ञानवादी तो बाह्यार्थकी सत्ता ही स्वीकार नहीं करता अतः उसके मतसे यह अविसंवाद और प्रामाण्य व्यवहाराश्रित है । वस्तुतः प्रमाणमात्र स्वरूपका साक्षात्कारी है। सौत्रान्तिक बाह्यार्थवादी है । वह वास्तविक प्रमेय एक स्वलक्षण ही मानता है। सामान्यलक्षण प्रमेय तो अतद्व्यावृत्ति या अकार्यकारणव्यावृत्ति रूप होनेसे कल्पित है। यह ग्राह्य तो होता है पर प्राप्य नहीं होता । इनकी अपनी प्रकिया यह है-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष क्षणिक परमाणुरूप स्वलक्षणसे उत्पन्न होता है। इसमें स्वलक्षण पदार्थ आलम्बन कारण है, पूर्वज्ञान समनन्तर ( उपादान ) कारण, इन्द्रियाँ अधिपति कारण और प्रकाश आदि सहकारी कारण हैं । यद्यपि जिस क्षणसे ज्ञान उत्पन्न होता है, वह क्षण ज्ञानकालमें नष्ट हो जाता है फिर भी उस क्षणकी सन्तान या उस सन्तानमें पतित अग्रिम क्षण ग्राह्य और प्राप्य होता है, अतः सन्तानमूलक एकत्वाध्यवसायसे अविसंवाद मान लिया जाता है। इसका कारण यह है कि वह क्षण यूँ कि अपना आकार ज्ञानमें देता है और वह उस ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होता है अतः वही क्षण उस (6) "येनाकारण तत्त्वपरिच्छेदः तदपेक्षया प्रामाण्यमिति । तेन प्रत्यक्षतदाभासयोरपि प्रायशः संकीर्णप्रामाण्येतरस्थितिरुन्नेतव्या। प्रसिद्धानुपहतेन्द्रियदृष्टेरपि चन्द्रार्कादिषु देशप्रत्यासत्याद्यभूताकारावभासनात् , तथोपहताक्षादेरपि संख्यादिविसंवादेऽपि चन्द्रादिस्वभावतत्वोपलम्भात् । तत्प्रकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धद्रव्यादिवत् ।"-अष्टश०, अष्टस० पृ. २७७ । लघी० स्व० श्लो० २२ । सिद्धिवि. १११९ । (२) "अनुपप्लुतदृष्टीनां चन्द्रादिपरिवेदनम् । तत्संख्यादिषु संवादि न प्रत्यासन्नतादिषु ॥" -त० श्लो० पृ० १७० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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