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२. सिद्धिविनिश्चयटीका के कर्त्ता अनन्तवीर्य
आचार्य अनन्तवीर्य अपने युगके श्रद्धालु तार्किक और प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे । भट्टाकलङ्कदेव के गूढतम प्रकरण ग्रन्थोंके हार्दको उद्घाटित करनेका इन्होंने अप्रतिम प्रयत्न किया है । यद्यपि इनके सामने अकलङ्क सूत्र के वृत्तिकार वृद्ध अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चयवृत्ति रही है पर जैसा कि इनके द्वारा लिखे गये इस श्लोकसे विदित होता है कि ये वृद्ध अनन्तवीर्यकी व्याख्यासे बहुत सन्तुष्ट नहीं थे । ये आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखते हैं कि
"देवस्थानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्त तु सर्वतः ।
न जानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत् परं भुवि ॥" - पृ० १
अर्थात् अकलङ्कदेव के पदोंका स्पष्ट अर्थ अनन्तवीर्य भी नहीं जानते यह बड़े आश्चर्य की बात है । यद्यपि इस श्लोक को अपनी लघुताके पक्षमें लगाया जा सकता है पर प्रस्तुत टीकामें जो इन्होंने पाठान्तरोंका उद्धरण देकर पूर्वव्याख्याकार से मतभेद प्रकट किया है उससे मेरे कथनका समर्थन हो जाता है ।
टिप्पण दिये गये उद्धरणोंमें 'अन्ये' और 'अपरे' शब्दसे इन्हें वृद्ध अनन्तवीर्य ही इष्ट हैं । इसका समर्थन ( पृ० ३१) में दिये गये 'इत्यनन्तवीर्यः' इस पदसे हो जाता है । यह उल्लेख ही वृद्ध अनन्तवीर्यके अस्तित्वका साक्षी है । प्रकृतटीकाकार अनन्तवीर्य पूर्वव्याख्याकार वृद्ध अनन्तवीर्यकी व्याख्यासे कारिकार्थका विरोध, पूर्वापर विरोध, तथा अर्थकी असंगतिको जिस रूपमें उपस्थित करते है, उससे स्पष्ट झलकता है कि वे वृद्ध अनन्तवीर्यकी व्याख्यासे बहुत प्रभावित नहीं थे । कहीं भी इन्होंने पूर्वव्याख्याकारके प्रति एक भी शब्द प्रशंसासूचक नहीं लिखा है ।
इन्होंने पूर्वटीकाकार अनन्तवीर्यसे अपना पार्थक्य दिखाने के लिए 'रविभद्रपादोपजीवी 'रविभद्रपदकमलचञ्चरीक' आदि विशेषण स्वयं प्रस्तावोंके अन्तके पुष्पिकावाक्यों में दिये हैं ।
प्रस्तुत टीकाकार अनन्तवीर्यकी व्याख्याशैली सहज सुबोध होनेपर भी अकलङ्कके प्रकरणों की संक्षिप्तता और गूढार्थता के कारण वह बहुत प्रवाहबद्ध नहीं हो पायी है ।
अनन्तवीर्य : श्रद्धालु तार्किक -
प्रस्तुत टीकाकार अनन्तवीर्य तार्किक होकर भी श्रद्धालु रहे हैं । उन्हें जो पुरानी परम्पराएँ प्राप्त हुई उसका यथासम्भव वे समर्थन करते रहे हैं । इसका एक उदाहरण है अन्यथानुपपत्तिवार्तिक के कर्तृत्वका प्रकरण
"अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् | नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥”
(१) "अन्ये तु दृष्टे संस्कारः दृष्टजातीये स्मृतिः इति व्याचक्षते । तेनायमर्थो लभ्यते न वेति चिन्त्यम्" - सिद्धिवि० टी० पृ० २७ ।
"अन्ये 'चित्रस्यैव' इति पठन्ति तेषां कारिकोपात्तोऽयमर्थो भवति न वेति चिन्त्यमेतत् । अस्माकं तु इवशब्दपाठान्न दोषः ।" - पृ० ५७ ।
“अन्ये तु 'स्पष्टनिर्भासान्वयैकस्वभावे' इति पठन्ति तेषां कथमन्यथा इत्यादि विरोधः । "
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- पृ० १२५ ।
"अपरे शास्त्राप्रामाण्यात्” इति पठन्ति तेषामनन्तरमेव तत्प्रामाण्यसमर्थनं किं विस्मृतं येनैवं पठन्ति ।" - पृ० ५३८ ।
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