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________________ ग्रन्थकार अकलङ्क : समयनिर्णय अनेकान्तजयपताका (पृ० ३२) के "निष्कलङ्कमतिसमुत्पक्षितसन्न्यायानुसारतः सर्वमेव प्रमाणादि प्रतिनियतं न घटते" इस पूर्वपक्षीय वाक्यमें जिस प्रकार पूर्वपक्षी बौद्ध अपने न्यायको 'निष्कलङ्कमतिसमुत्प्रेक्षित न्याय' कह रहा है इसी तरह “अकलङ्कन्यायानुसारि चेतोहरं वचः" वाक्यमें नैयायिक अपनी युक्तिको 'अकलङ्कन्यायानुसारि' कह रहा है जिसका अर्थ 'निर्दोषन्याय'से भिन्न कोई दूसरा नहीं हो सकता । यदि 'अकलङ्कन्यायानुसारि' वाक्यका 'अकलङ्कदेवका न्याय' यह अर्थ लिया जाय तो उसकी संगति नैयायिकके पूर्वपक्षके साथ नहीं बैठ सकती। इस तरह जब हरिभद्र लगभग अकलङ्कके लघुसमकालीन ई० ८ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं तब उनके द्वारा उल्लखित या अनुल्लिखित होनेसे उनके समयका अकलङ्कको समयावधिपर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। (७) जिनदासगणि महत्तरकी निशीथ चूर्णिमें दर्शनप्रभावक शास्त्रोंमें सिद्धविनिश्चयका नाम अवश्य दिया है । किन्तु यह सिद्धिविनिश्चय अकलङ्ककृत प्रकृत सिद्धिविनिश्चय नहीं है । मुनिश्री पुण्यविजयजीको' शाकटायनकृत स्त्रीमुक्ति प्रकरणकी एक टीका मिली है, जो खंडित है । उसका आदि अन्त नहीं है इसलिए टीकाकारका नाम मालूम नहीं हो सका । उसमें एक जगह लिखा है-"अस्मिन्नर्थे भगवदाचार्यशिवस्वामिनः सिद्धिविनिश्चये युक्त्यभ्यधायि आर्याद्वयमाह-यत्संयमोपकाराय वर्तते।" इसमें आचार्य शिवस्वामीके सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थका उल्लेख है जो अकलङ्कदेवके सिद्धिविनिश्चयसे भिन्न है; क्योंकि इसमें स्त्रीमुक्तिका समर्थन करनेवाली वे आर्याएँ हैं जिन आर्याओंको शाकटायन ने (ई० ८१४-८६७) अपने स्त्रीमुक्ति प्रकरणमें उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त शाकटायनने स्वयं अपनी अमोघवृत्ति (१।३।१६८) में शिवार्यके सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख इस प्रकार किया है-“साधु खल्विदं शब्दानुशासनमाचार्यस्य आचार्येण वा । शोभनः सिद्धेर्विनिश्चयः शिवार्यस्य शिवार्येण वा।" इस अवतरण में शिवार्यके सिद्धिविनिश्चयका स्पष्ट कथन है। इन दो उल्लेखोंसे इस बातमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि शाकटायनके सामने शिवार्यका सिद्धिविनिश्चय रहा है, जिसमें स्त्रीमुक्तिका समर्थन था । जब निशीथचूर्णिमें सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख उपलब्ध हुआ और कच्छ के भंडारसे अकलङ्ककृत सिद्धिविनिश्चयकी अनन्तवीर्यकृत टीकाकी प्रति उपलब्ध हुई और 'अनेकान्त' में श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने, इसका परिचय देते हुए निशीथचूर्णिका निर्देश किया, तभी 'अनेकान्त' पत्र में श्री पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीकी ओरसे एक संशोधन और सूचन प्रकाशित हुआ था, जिसमें लिखा था कि-'निशीथचूर्णिमें निर्दिष्ट सिद्धिविनिश्चय अकलङ्कदेवका तो हो ही नहीं सकता' क्योंकि वे उक्त चूर्णिके रचयिता जिनदास महत्तरके बाद ही हुए हैं। अतः चूर्णिमें निर्दिष्ट सिद्धिविनिश्चय अन्य किसीका रचा हुआ होना चाहिये । और वे अन्य संभवतः श्वेतांबरीय विद्वान् होंगे। अपनी इस संभावनाके उन्होंने दो मुख्य कारण बतलाये थे। एक तो श्वेताम्बरीय किसी ग्रन्थ में निश्चित दिगम्बरीय ग्रन्थका प्रभावकके तौर पर अन्यत्र उल्लेख न मिलना, दूसरे सन्मतितर्क जो श्वेताम्बरीय प्रतिष्ठित ग्रन्थ है उसके साथ और उससे पहिले सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख होना। (१) प्रो० दलसुखभाईने यह सूचना दी है। (२) “यत्संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् ।। धर्मस्य हि तत्साधनमतोऽन्यदधिकरणमाहार्हन् ॥१२॥ धस्तैवाहिर (अस्त्यैर्यव्याहार ) व्युत्सर्गविवेकैषणादिसमितीनाम् । उपदेशनमुपदेशो ह्युपधेरपरिग्रहत्वस्य ॥१३॥" -स्त्रीमुक्ति प्र० श्लो० १२-१३ । जैन सा० सं० खंड २ अंक ३-४ । (३) इस अवतरणकी सूचना श्री पं० कैलाशचंद्रजी शास्त्रीने दी है। (४) अनेकान्त वर्ष १, अंक ४। ) न्यायकु. प्रथम भाग प्रस्तावना पृ० १०५, टि.३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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