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प्रस्तावना
किया है। मुनिजीके समय निर्णयका औचित्य मानते हुए हमने न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भागकी प्रस्तावना में सुझाव दिया था कि-चूँकि हरिभद्रसूरिके षड्दर्शनसमुच्चय (श्लो० २०) में 'न्यायमंजरीके
"गम्भीरगर्जितारम्भनिर्भिन्नगिरिगह्वराः। रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः ॥ त्वङ्गत्तडिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तङ्गविग्रहाः ।
वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः॥" इन दोनों श्लोकोंके द्वितीय पादोंको जैसाका तैसा ले लिया गया है। अतः उनका समय जयन्तभट्टके बाद होना चाहिए । विधिविवेक न्यायकणिका टीकाके
"अज्ञानतिमिरशमनी परदमनी न्यायमञ्जरीं रुचिराम् ।
प्रसवित्रे प्रभवित्रे विद्यातरवे नमो गुरवे ॥" इस मंगल श्लोकमें न्यायमंजरीका नाम देखकर हमने अनुमान किया था कि जयन्तका समय ई. ७६० से ८४० तक होना चाहिये, क्योंकि वाचस्पति मिश्रका समय ई० ८४१ निश्चित है। किन्तु अभी श्री अनन्तलाल ठाकुरने "गुरु त्रिलोचनकी न्यायमंजरी एक विस्मृत ग्रन्थ' शीर्षक लेखमें वाचस्पति मिश्रके गुरु त्रिलोचनकी न्यायमंजरीका पता दिया है । उन्होंने उक्त लेखमें बताया है कि ज्ञानश्री और रत्नकीर्तिने अपने क्षणभङ्गाध्याय (ईश्वरवाद ?) आदि ग्रन्थोंमें त्रिलोचनकृत न्यायमंजरीके कई उद्धरण त्रिलोचनके नामके साथ लिये हैं । इस तरह त्रिलोचन गुरुकी न्यायमंजरीका पता लग जानेसे और वाचस्पति मिश्र द्वारा त्रिलोचन गुरुकी ही न्यायमञ्जरीका उल्लेख किया जाना निश्चित हो जानेसे अब भट्ट जयन्तकी समयावधिपर स्वतन्त्र भावसे विचार करना होगा।
भट्ट जयन्तके पुत्र अभिनन्दने अपने कादम्बरी कथासारमें अपनी वंशावली इस प्रकार दी है"भारद्वाज कुलमें शक्ति नामका गौड़ ब्राह्मण था । उसका पुत्र मित्र, मित्रका पुत्र शक्तिस्वामी हुआ । ये शक्तिस्वामी कर्कोट वंशके राजा मुक्तापीड ललितादित्यके मन्त्री थे। शक्तिस्वामीके पुत्र कल्याणस्वामी, कल्याणस्वामीके पुत्र चन्द्र तथा चन्द्रके पुत्र जयन्त हुए, जो नववृत्तिकार नामसे प्रसिद्ध थे। जयन्तके अभिनन्द नामका पुत्र हुआ ।"
काश्मीरके कर्कोट वंशके राजा मुक्तापीड ललितादित्यका राज्यकाल ई० ७३३ से ७६८ तक रहा हैं । अतः इनके मन्त्री शक्तिस्वामीकी तीसरी पीढ़ीमें उत्पन्न होनेवाले जयन्तका जन्म समय ई० ७७० से पहले नहीं जा सकता। ऐसी दशामें जयन्तकी न्याममञ्जरीकी रचना जल्दी से जल्दी ई० ८०० तक हो सकती है। अतः यदि हरिभद्रने जयन्तकी न्यायमञ्जरीसे ही षड्दर्शनसमुच्चयमें उक्त श्लोक लिये हैं तो उनके समयकी उत्तरावधि ई० ८१० तक लम्बानी होगी तभी वे जयन्त भट्टकी न्यायमञ्जरीको देख सकते हैं ।
___इस तरह हरिभद्रसूरिका समय ई० ७२० से ८१० तक निश्चित होता है जो उस समयके दीर्घायुष्यको देखते हुए असम्भव नहीं है। ये अकलङ्कदेवके समकालीन रहे हैं।
अनेकान्तजयपताका (पृ० २७५) में आया हुआ "अकलङ्कन्यायानुसारि चेतोहरं वचः" वाक्य अकलङ्ककृत न्यायका उल्लेख नहीं कर रहा है अपि तु न्यायकी निष्कलङ्कताका द्योतन करता है। इसी
(१) हरिभद्रसूरिका समय निर्णय लेख, जैन सा० सं० भा० १ अंक । (२) पृ०३८ । (३) न्यायमञ्जरी, विजयनगरम् संस्करण, पृ० १२९ । (४) ज. वि० ओ० रि० सो० पटना, १९५५. भाग ४ ।
"मञ्जयां त्रिलोचनः पुनराह-बुद्धिमत्पूर्वकत्वेन'""-वही पृ० ५०८ टि. २ आदि । (६) न्यायकु० द्वि० प्रस्तावना पृ० १६ । (७) संस्कृत साहित्यका इतिहास, परिशिष्ट (ख) पृ० १५।
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