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प्रस्तावना
अकलङ्कचरितके शास्त्रार्थवाले श्लोकके 'विक्रमार्कशकाब्दीय' पदको इसीके प्रकाशमें देखना होगा और इसका अर्थ शकसंवत् करके ही हम समयकी संगति बिठा सकते हैं । इसके अन्य कारण इस प्रकार हैं
१. इस श्लोकके 'विक्रमार्कशकाब्दीय' के स्थानमें 'विक्रमाङ्कशकाब्दीय' पाठ मानना चाहिए, जिसका अर्थ है विक्रमविभूषित शकसम्बन्धी ।
२. जैन परम्परामें शकसंवत्का उल्लेख बहुत प्राचीनकालसे ही 'विक्रमाङ्कशक' शब्दसे होता रहा है । उसके दो प्रमाण ये हैं
(क) धवला टीकाकी समाप्ति जगत्तं गदेवके राज्यकी समाप्ति और अमोघवर्ष के प्रारम्भकालमें ई० ८१६ में हुई थी । धवला टीका प्रथम भागकी प्रस्तावना में अनेकविध ऊहापोहसे इस समयकी सिद्धि की गई है। धवलाकी अन्तिम प्रशस्तिवाली गाथा इस प्रकार है
"अठतीसम्हि सतसए विकमरायंकिए सुसगणामे ।
वासे सुतेरसीए भाणुविलग्गे धवलपक्खे ॥" इस गाथामें धवलाकी समाप्तिका काल विक्रमराजाङ्कित शक ७३८ दिया है, जो शकसंवत् माननेसे ही ठीक सिद्ध हो सकता है; क्योंकि जगत्तुंग और अमोघवर्ष के राज्यकाल इतिहाससे वही सिद्ध हैं जो इसे शकसंवत् माननेसे आते हैं।
(ख) डॉ० हीरालालजीने अपने मतके समर्थनके लिये वहीं (पृ० ४०) त्रिलोकसार (गा० ८५०) के टीकाकार श्री माधवचन्द्र विद्यका यह अवतरण दिया है-"श्री वीरनाथनिवृतेः सकाशात् पञ्चशतोत्तरषट्शतवर्षाणि (६०५) पञ्चमासयुतानि गत्वा पश्चात् विक्रमाङ्कशकराजो जायते।"
इस अवतरणमें वीरनिर्वाणसंवत् ६०५ में प्रवर्तित शकसंवत्के संस्थापकका 'विक्रमाङ्कशकराज' शब्दसे स्पष्ट उल्लेख है, जो हमें 'विक्रमाङ्क' पदको शकराजाकी उपाधि माननेके लिये प्रेरित करता है । इन दो प्रमाणोंसे यह बात सिद्ध हो जाती है कि जैन लेखक 'विक्रमाङ्कशक' शब्दसे शकसंवत्का उल्लेख प्राचीन काल (ई० ९वीं सदी) से ही करते आये हैं। इतना ही नहीं त्रिलोकप्रज्ञप्ति (गाथा ८६, ८९) में शककी उत्पत्ति वीरनिर्वाणसे ४६१ वर्ष पश्चात् या विकल्पसे ६०५ वर्ष पश्चात् बतलाई गई है । उसमें यही मान्यता ध्वनित है; क्योंकि वीरनिर्वाणसे ४६१वाँ वर्ष प्रसिद्ध विक्रमके राज्यकालमें पड़ता है और ६०५ वें वर्षसे शककाल प्रारम्भ होता है । अतः अकलङ्कचरितके श्लोकमें शकसंवत्का उल्लेख ही इतिहाससंगत सिद्ध होता है ।
सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री जयचन्द्रजी विद्यालङ्कारका विचार भी उक्त मान्यताको पुष्ट करता है ।
(१) पृ० ३५ से ४५ तक । (२) धवलाटीका प्रथम भाग प्रस्तावना पृ० ४१। (३) वही।
(४) वे भारतीय इतिहासकी रूपरेखा (पृष्ठ ८२४ से ८२९) में लिखते हैं कि-"महमूद गजनवीके समकालीन प्रसिद्ध विद्वान् यात्री अल्बेरुनीने अपने भारतविषयक ग्रन्थमें शकराजा और दूसरे विक्रमादित्यके युद्धकी बात इस प्रकार लिखी है-'शकसंवत् अथवा शककालका आरम्भ विक्रमादित्यके संवत्से १३५ वर्ष पीछे पड़ा है । प्रस्तुत शकने उन (हिन्दुओं) के देशपर सिन्धु नदी और समुद्र के बीच आर्यावर्तके उस राज्यको अपना निवासस्थान बनानेके बाद बड़े अत्याचार किये। कइयोंका कहना है कि वह अलमन्सूरा नगरीका शूद्र था, दूसरे कहते हैं वह हिन्दू था ही नहीं और भारतमें पश्चिमसे आया था । हिन्दुओंको उससे बहुत कष्ट सहने पड़े। अन्तमें उन्हें पूरबसे सहायता मिली जब कि विक्रमादित्यने उसपर चढ़ाई की, उसे भगा दिया और मुल्तान तथा लोनीके कोटलेके बोच करूर प्रदेशमें उसे मार डाला । तब यह तिथि प्रसिद्ध हो गई क्योंकि लोग उस प्रजापीड़ककी मौतकी खबरसे बहुत खुश हुए और उस तिथिमें एक संवत् शुरू हुआ जिसे ज्योतिषी विशेष रूपसे वर्तने लगे किन्तु विक्रमादित्य संवत् कहे जानेवाले संवत्के आरम्भ और शकके मारे जानेके बीच बड़ा अन्तर है, इसमें मैं समझता हूँ कि
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