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________________ ग्रन्थकार अकलङ्क: समयनिर्णय ४९ गोरवको दी गई भूमिका उल्लेख है । इसमें लगभग २५ श्लोक हैं। इनमें कृष्णतृतीय तक के राष्ट्रकूटवंशकी राजाओंकी विरुदावली है । ब्रह्मसे राष्ट्रकूटवंशकी परम्परा अत्रि चन्द्र यदु कुकुर वृष्णि वासुदेव (कृष्ण) और अनिरुद्ध तक लानेके बाद कहा है-कि उस कुलमें नृपसहस्रपूजित आसमुद्र पृथिवीका पति राजा हुआ जो राष्ट्रकूट इस नामको धारण करता था। उसी कुलमें दुर्धरबाहुवीर्य पृथिवीका एकमात्र पति दन्तिदुर्ग नामका राजा हुआ, जिसने चालुक्य रूपी समुद्रका मथन कर उसकी लक्ष्मीको चिरकाल तक अपने कुलकी कान्ता बनाया था। जब वह साहसतुंग नामवाला दन्तिदुर्ग स्वर्ग सुन्दरियोंसे प्रार्थित हो युवावस्थामें ही स्वर्गवासी हो गया, तब चालुक्योंसे प्राप्त वह राजलक्ष्मी, वेश्याकी:तरह सूर्यसमान प्रतापी श्रीकृष्णराजके रम्य गुणों पर मोहित हो चिरकालतक उसे आलिङ्गित करती रही ''इत्यादि । शिलालेखके मूल श्लोक इस प्रकार हैं "एवं वंशे यदूनामतिविसरद्विक्रीकाश्रयाणां भूपा भोगीन्द्रदीर्घस्थिरभुजपरिघक्षितोर्वी विवशां सहाय्यं यैः प्रयासुररिपुसमितौ श्रीमदाखण्डलस्य [ते] नैकेनेकवृत्या शशविशदयशोराशयस्का बभूवुः तस्मिन् कुले सकलवारिधिचारुवीचि काञ्चीभृतौ महितभूमिमहामहिष्यः। भाभवन्नपसहस्रकमौलिमान्यम् । श्रीराष्ट्रकूट इति नाम निजं दधा [नाः ] [४] तत्रान्वयेऽप्यभवदेकपतिः[पृथिव्याम् । श्रीदन्तिदुर्ग इति दुर्धरबाहुवीयों चालुक्यसिन्धुमथनोद्भवराजलक्ष्मीम् । यः संबभार चिरमात्मकुलैककान्ताम् । [५] तस्मिन् साहसतुंगनाम्नि नृपतौ स्वःसुन्दरीप्रार्थिते याते यूनि दिवं दिवाकरसमं वेश्येव लक्ष्मीस्ततः। तत्रावाप भुजाद्वयन निबिडं संश्लिष्य रम्यैर्गुणैः । प्रीत्या प्राणसमं चिरं रमयति श्रीकृष्णराजाधिपम् ॥ [६] तस्मादभूत्सू नुरुदारकीर्तिः प्रभूतवर्षी ""."भु यो"यामुनिवद्विभाति ॥७॥ रतिपतिरुरुभावे दर्शनात् सुन्दरीणां सुरत धत्ते तत्र भूपे नुजे स्य । ध्रुव इति नृपतित्वे मन्त्रिभिश्चाभिषिक्ते निरुपम इति भूमौ म बुधोपि ॥८॥ तुंगान्वयोत्तुं गजयध्वजेन जगत्तुंग इति क्षितीन्द्रः ॥९॥" इन श्लोकों के 'तस्मिन् साहसतुंगनाम्नि' इस पदमें दन्तिदुर्गका दूसरा नाम साहसतुंग था इस बात का इतना स्पष्ट उल्लेख है कि उसमें किसी प्रकारके सन्देहको अवकाश नहीं है, क्योंकि इसमें दन्तिदुर्ग साहसतुंगके स्वर्गवासके बाद कृष्ण प्रथमके राजसिंहासनासीन होनेकी इतिहासप्रसिद्ध घटना और दन्तिदुर्गकी चालुक्यविजयकी घटनाका उल्लेख है । अतः अब 'साहसतुंग' नामको अनुमानमात्र कहकर उसे सन्देहकोटिमें डालनेकी कोई गुंजाइश नहीं रह जाती । साहसतुंग दन्तिदुर्गका समय ई० ७५६ तक है' । (३) जब 'साहसतुंग निर्विवादरूपसे दन्तिदुर्गका उपनाम या विरुद था' यह सिद्ध हो गया तब हमें (१) दी राष्ट्रकूटाज़०:पृ० १०। 1. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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