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ग्रन्थकार अकलङ्क तुलना
२१ देवने आगमिक क्षमाश्रमणके विचारोंका अपनी प्रमाण व्यवस्थामें उपयोग किया है। यद्यपि सांव्यवहारिक प्रमाण माननेकी परम्परा विज्ञानवादी बौद्धोंसे प्रचलित रही है। पर जैन परम्परामें सर्व प्रथम इस विचारका प्रवेश विशेषावश्यकमें ही देखा गया है।
पात्रकेसरी और अकलङ्क
अनन्तवीर्यके उल्लेख के अनुसार पात्रकेसरीका त्रिलक्षणकदर्थन ग्रन्थ था । 'तत्त्वसंग्रहमें पात्रस्वामीके नामसे "अन्यथानुपन्नत्वं" श्लोक उद्धृत है । "शिलालेखोंमें 'सुमति' से पहिले पात्रस्वामीका नाम
आता है । हेतुका त्रिलक्षण स्वरूप दिग्नागने न्यायप्रवेशमें स्थापित किया है और उसका विस्तार धर्मकीर्तिने किया है । पात्रस्वामीका पुराना उल्लेख करनेवाले शान्तरक्षित (ई० ७०५-७६२) और कर्णकगोमि (ई ७ वींका उत्तरार्ध और ८वींका पूर्वार्ध) हैं । अतः इनका समय दिग्नाग (ई० ४२५) के बाद और शान्तरक्षितके मध्यमें होना चाहिए । ये ई० ६ वीं के उत्तरार्ध और ७ वीं के पूर्वार्धके विद्वान् ज्ञात होते हैं । इनके प्रसिद्ध 'अन्यथानुपपन्नत्वं' श्लोकको अकलङ्कदेवने न्यायविनिश्चय के मूलमें शामिल कर लिया है । भर्तृहरि और अकलङ्क
वैयाकरण दर्शनके प्रतिष्ठापक आचार्य भर्तृहरिका समय अभी तक इत्सिंगके यात्राविवरणके उल्लेखके आधारसे ई० ६५० निर्विवाद रूपसे माना जाता था; क्योंकि इत्सिंग (ई० ६९१) ने लिखा था कि भर्तृहरिको मरे हुए अभी ४० वर्ष हुए हैं। परन्तु मुनि श्री जम्बूविजयजीने "जैनाचार्य मल्लवादि अने भर्तृहरिनो समय" शीर्षक लेख में इस बद्ध धारणाको बदलनेके निम्नलिखित कारण उपस्थित किये हैं
“(१) भर्तृहरि वसुरातके शिष्य थे । वाक्यपदीयकी टीकामें पुण्यराजने भी यह उल्लेख किया है तथा नयचक्रमें मल्लवादी भी इसका निर्देश करते हैं । परमार्थपंडितने ई० ५६० के आसपास चीनी भाषामें वसुबन्धुका जीवन लिखा है। उसमें बताया है कि जब महावैयाकरण वसुरातने वसुबन्धुरचित अभिधर्मकोशमें व्याकरणसम्बन्धी अशुद्धियाँ बताई तो वसुबन्धुने उन दोषोंके परिहारके लिये एक ग्रन्थ बनाया था, यह बात विद्वजन स्वीकार करते हैं । बसुबन्धुका समय ई० २८०-३६० माना जाता है। अतः वसुबन्धुके समकालीन वसुरात के शिष्य भर्तृहरिका सयम अन्ततः ई० ५वीं का पूर्वार्ध ही हो सकता है।
- (२) वसुबन्धुके शिष्य दिग्नागने प्रमाणसमुच्चयके ५वें अपोहपरिच्छेदके अन्तिम भागमें भर्तृहरिकी वाक्यपदीय की ये दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं
"संस्थानवर्णावयवैर्विशिष्टे यः प्रयुज्यते । शब्दो न तस्यावयवे प्रवृत्तिरुपलभ्यते ॥ संख्याप्रमाणसंस्थाननिरपेक्षः प्रवर्तते । बिन्दौ च समुदाये च वाचकः सलिलादिषु ॥"
-वाक्यप० २।१५६-५७ । प्रमाणसमुच्चयके टीकाकार जिनेन्द्रबुद्धिने विशामलवती टीका में 'यथाह भर्तृहरिः' लिखकर इन इलोकोंकी टीका लिखी है । ये दलोक दिग्नागने मूल प्रमाणससुच्चयमें दिये हैं। इससे स्पष्ट है कि भर्तृहरि
(१) "प्रामाण्यं व्यवहारेण"-प्र० वा० १७॥ (२) देखो आगे 'अनन्तवीर्य श्रद्धालु तार्किक' प्रकरण । (३) वही। (४) पृ० ८ । (५) न्यायवि० श्लो० २।३२३ । (६) बुद्धिप्रकाश पु० ९८ अंक ११ नवम्बर १९५१ । (७) 'वसुरातस्य भर्तृहयुपाध्यायस्य मतं तु तथा..."-नयचक्र०। (८) तत्त्वसं० प्रस्ता० पृ० ६४ । (९) मुनि श्री जम्बूविजयजीने इस टीकाका टिबेटियनसे अनुवाद करके इस स्थल की जाँच की है ।
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