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प्रेस्तावना
कर दिया । इस तरह अपनी जान बचाकर गुरुके पास पहुँचा, और सब हाल सुनाते हुए भाईके तीव्र शोकके वेगसे उसकी छाती फट गई और वह वहीं मर गया। हरिभद्र सूरिको अपने प्रिय शिष्योंकी मृत्युसे बहुत खेद हुआ और उसका बदला लेने के लिये उन्होंने बहुतसे बौद्ध पंडितोंको शास्त्रार्थमें हराया और शर्त के अनुसार उन्हें तप्त तैलमें डाल दिया। पीछे गुरुके द्वारा भेजी गई गाथाओंसे वे शान्त हुए । हरिभद्रके प्रत्येक ग्रन्थके अन्तमें 'विरह' शब्द आता है, जो उनके प्रिय शिष्यों के वियोगका चिह्न है।”
राजशेखरसूरिके चतुर्विंशतिप्रबन्ध (इ० १३४८) में भी हंस परमहंसकी कथा है। उसमें शास्त्रार्थ और धोबीवाली घटना नहीं है। बाकी सब लगभग प्रभावकचरित्र जैसा ही है। उसमें दोनों भाइयोंने युद्ध किया, हंस मारा गया और परमहंस भागे। किन्तु सैनिकोंने चित्रकूट नगरके द्वारपर सोते हुए परमहंसका सिर काट लिया । आदि । समीक्षा
इन कथानकोंमें दो भाइयोंके बौद्धमठमें पढ़ने जाना, एकका मारा जाना दूसरेका शास्त्रार्थ करना आदि घटनाएँ लगभग एक जैसी हैं । हंस परमहंस नाम जैन परम्पराके अनुकूल नहीं लगते । हाँ, प्राकृत कथावलीके जिनभद्र और वीरभद्र नामों पर जैन परम्पराकी छाप है। कालकी दृष्टिसे प्रभाचन्द्रका कथाकोश सबसे पुराना है। इस प्रकारकी कथाओंमें शासनप्रभावनाकी बात मुख्य रहती है और ऐतिहासिक तथ्य उसीमें लिपटकर सामने आते हैं ।
राजवली कथे आदि १६ वीं सदीकी बहुत बादकी रचनाएँ हैं। इनमें परमरागत तथ्योंका अपने युगकी अनुश्रुतियोंसे मिलाकर प्रभावनार्थ चित्रण किया गया है। इन्हें हतिहासका समर्थन नहीं मिल पा रहा है। इनमें जिनदास और जिनमती नाम जैनलके रंग में रंगे हुए हैं। अन्य घटनाओं में धर्मप्रभावनाकी भावना ही मुख्य रही है।
प्रभाचन्द्रका कथाकोश अवश्य प्राचीन साधन है जो कुछ ऐतिहासिक सामग्री उपस्थित करता है। यथा
(१) 'मान्यखेट नगरीका राजा शुभतुङ्ग था।' जहाँ तक ऐतिहासिक साधनोंसे जाना जा सका है राष्ट्रकूटवंशीय कृष्ण प्रथमकी उपाधि 'शुभतुङ्ग' थी। राष्ट्रकूटोंकी राजधानी भी मान्यखेट थी, पर इसकी पुनः स्थापना अमोघवर्ष ने ई०८१५ के आसपास की थी। अमोघवर्षके पहिले गोविन्द तृतीयने वेंगीके पूर्वी चालुक्य द्वारा मान्यखेटके रक्षार्थ उसके चारों तरफ शहरपनाह बनवाई थी। इसके भी पहिले शक संवत् ६९८ (ई० ७७६) के देवरहल्लि'के ताम्रपत्रोंमें मान्यपुरका उल्लेख है। जिससे श्रीपुरुषका विजयस्कन्धावार ६९८ शकमें मान्यपुरमें था यह विदित होता है ।
. राष्ट्रकूटकालके विशिष्ट अभ्यासी डॉ आल्तेकर अमोघवर्ष के पहिले राष्ट्रकूटोंकी राजधानी कहाँ थी यह निश्चय करनेमें कोई प्रमाण नहीं पाते ।'
शुभतुङ्ग कृष्णराज प्रथम अपने भतीजे दन्तिदुर्ग द्वितीयकी जवानीमें ही मृत्यु हो जानेके बाद राज्याधिकारी हुए थे। दन्तिदुर्ग द्वितीयका एक दानपत्र (शक सं० ६७५ ई० ७५१) सामनगढ़ (कोल्हापुर राज्य) में मिला है। इसमें इसके प्रतापका विस्तृत वर्णन है । भारत इतिहास संशोधक मण्डलने एक ताम्रपत्र
(१)न्यायकु०प्र० भाग प्रस्ता० पृ. ३२ । (२) एपि०ई० भाग ३ पृ० १०६ । (१) ए. इं० भाग १२ पृ. २६३ । (४) भारतके प्राचीन राजवंश भाग ३ पृ० ३९ । (५) जैनशि० भाग २ लेख नं. १२१ । ए० क. भाग ४ नागमंगल ता० नं०८५। (6) दी राष्ट्रकूटॉज एण्ड देअर टाइम्स पृ० ४८ । (७) ए. ई. भाग ११ पृ० १११ । भा० प्रा० राज. भाग ३ पृ. २६ । (6) दी राष्ट्रकूटॉज. पृ० ४४ । ।
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