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ग्रन्थकार अकलङ्क : जीवनगाथा कथाओंका साम्प्रदायिक रूप
श्वेताम्बर परम्परामें भद्रेश्वरसूरिकी प्राकृत कथावली ई० १२ वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। इसकी मुनि पुण्यविजयजी कृत प्रेसकापीमें हरिभद्रसूरिकी कथा इस प्रकार दी गई है -"हरिभद्रसूरिने जिनदत्ताचार्यसे 'भवविरह' के हेतु जिनदीक्षा धारण की। उनके जिनभद्र और वीरभद्र दो शिष्य थे। उस समय चितौड़में बौद्धमतका प्राबल्य था और बौद्ध हरिभद्रसे ईर्ष्या करते थे। एक दिन बौद्धोंने हरिभद्रके दोनों शिष्योंको एकान्तमें मार डाला । यह सुनकर हरिभद्रको बहुत दुःख हुआ ओर उन्होंने अनशन करनेका निश्चय किया । प्रभावक पुरुषोंने उन्हें ऐसा करनेसे रोका और हरिभद्रने ग्रन्थराशिको ही अपना पुत्र मान उसकी रचनामें चित्त लगाया । ग्रन्थ निर्माण और लेखन कार्यमें जिनभद्र वीरभद्रके काका लल्लिकने बहुत सहायता की । हरिभद्र जब भोजन करते थे तो लल्लिक उस समय शंख बजाता था। उसे सुनकर बहुतसे याचक एकत्र हो जाते थे हरिभद्र उन्हें 'भवविरह करनेमें प्रयत्न करो' यह आशीर्वाद देते थे। इससे हरिभद्रसूरि 'भवविरहसूरि के नामसे प्रसिद्ध हो गये थे।"
चन्द्रप्रभसूरिके प्रभावक चरित' (ई० १२७७) में हंस परमहंसकी कथा इस प्रकार है-"हरिभद्रसूरिके हंस और परमहंस नामके दो शिष्य थे। ये दोनों भाई सुगतपुरमें बौद्ध शास्त्रोंके अध्ययन के लिये गये और वहाँ किसी बौद्धमठमें विद्याध्ययन करने लगे। उन्होंने एक पत्रपर जिन मतके खंडनका प्रतिखण्डन और दूसरेपर सुगतमतके दूषण लिख रखे थे। दैवयोगसे वे पत्र एक दिन हवामें उड़ गये और उनपर बौद्धगुरुकी दृष्टि जा पड़ी । उन्हें देखकर गुरुको इनके जैन होनेका सन्देह हो गया । परीक्षाके लिये उसने मार्गमें जिनबिम्बका चित्र बनवा दिया और सब छात्रोंको उसपर पैर रखकर जानेकी आज्ञा दी। प्राणोंपर संकट जानकर दोनों भाइयोंने खडियासे प्रतिमाके हृदयपर यज्ञोपवीतका चिह्न बना दिया और उसे बुद्ध प्रतिमा मानकर लाँघ गये । तब दूसरी परीक्षाके समय रात्रिमें ऊपर बर्तन गिराकर सहसा चौंका देनेवाला शब्द किया गया । हंस परमहंस चोंककर जागे और जिन देवका स्मरण करने लगे। इसी समय गुप्तचरों द्वारा पकड़ लिये गये । मठकी छतपरके कमरेमें दोनों भाई कैद कर दिये गये। मृत्युके भयसे दोनों भाई छातोंकी सहायतासे पृथिवीपर उतर कर भागे। उन्हें पकड़नेके लिये सवार दौड़ाए गये । हंसने अपने छोटे भाईको तो राजा सूरपालकी शरणमें भेज दिया और स्वयं लड़कर मारा गया ।
सवार राजाके पास गये और अपराधीको माँगा किन्तु राजाने इनकार कर दिया और शास्त्रार्थका प्रस्ताव रखा । मठाधिपतिने प्रस्ताव तो स्वीकार कर लिया किन्तु यह कहकर कि बुद्धके मस्तकपर पैर रखनेवाले व्यक्तिका मुख हम नहीं देख सकते ।
बौद्धोंने घटमें अपनी देवीका आह्वान किया और उससे परमहंसका शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ बहुत दिन तक चला । अन्तमें शासनदेवीके द्वारा बतलाये गये उपायसे काम लिया गया । अन्तमें परमहंसने विजय पाई ओर पर्दा खींचकर घडेको पैरसे फोड डाला। परमहंसने विजय तो पाई किन्तु उसकी विपत्तिका अन्त नहीं हुआ। बौद्ध पराजित हो और भी कुपित हो गये । अस्तु, किसी तरह आँख बचाकर वह सूरपालसे बिदा हुआ । रास्तेमें उसने एक धोबी देखा और सवारोंको समीप आया जानकर उससे कहा-भागो, सेना आ रही है । बेचारा धोबी कपड़े छोड़कर भाग खड़ा हुआ और परमहंसने उसका स्थान ले लिया । सवारोंके निकट आने पर और उससे उस मार्गसे जानेवाले मनुष्यका पता पूँ छनेपर परमहंसने उस भागते हुए की और संकेत
(6) मुनि जिन विजयजी इसका समय १२ वीं शताब्दी मानते हैं-न्यायकु० प्र० भाग प्रस्ता० पृ० ३२ टि. १। डॉ. उपाध्येने बृहत्कथाकोशकी प्रस्तावना (पृ. ४५) में श्री दलालका मत इसे कर्णके राज्यकाल (ई. १०६४-९४) का मानने का तथा डॉ. जैकोवीका मत इसे ई०१२वीं के उत्तरार्ध माननेका देकर अन्तमें इसे हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व (ई. ११५० के लगभग) से पूर्ववर्ती माना है।
(२)न्यायकु० प्र० भाग प्रस्ता० पृ० ३२॥ (३) प्रभावकचरित पृ० १०३-२३ । न्यायकु०प्र० भाग प्रस्ता० पृ०३२॥
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