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________________ प्रस्तावना ____ इस तरह उद्धृत मूल इलोक ३७० हैं । टीकाके आधारसे उद्धृत स्ववृत्तिका प्रमाण भी लगभग ५०० श्लोक प्रमाण होगा। __यह सब उद्धृत मूलभाग ग्रन्थमें [ ] इस प्रकारके चतुष्कोण ब्रेकिटमें यथास्थान मुद्रित किया गया है। पाठशुद्धि इस ग्रन्थके सम्पादनमें एकमात्र समुपलब्ध यह प्रति ही हमें आधारभूत रही है। अतः पाठशुद्धिके प्रमुख साधनभूत अन्य प्रतियोंके अभावमें हमें ग्रन्थान्तरों के अवतरण और सदृशपाठ ही पाठशुद्धिके साधन रहे हैं । इसलिये हमने टीकाकी उस एकमात्र प्रतिको ही आदर्श प्रति मानकर उसका जो भी शुद्ध या अशुद्ध पाठ रहा उसे ऊपर स्थान दिया है । जो भी सुधार हमने किया है वह [ ] ( ) इस प्रकारके चतुष्कोण और गोल ब्रेकिटमें किया है । जहाँ किसी नये शब्द या अक्षरको अपनी ओरसे रखना पड़ा है वहाँ वह शब्द या अक्षर [ ] इस प्रकारके चतुष्कोण ब्रेकिटमें रखा है और जहाँ मूलप्रतिके किसी शब्द या अक्षरके स्थानमें दूसरा शब्द या अक्षर सुझाना पड़ा है वह ( ) इस प्रकारके गोल ब्रेकिटमें सुझाया गया है । जहाँ पाठशुद्धिकी साक्षीके रूपमें ग्रन्थान्तरीय अवतरण मिल सके हैं वे नीचे टिप्पणीमें दे दिये हैं। उद्धृत वाक्योंकी पाठशुद्धिमें जिन मूलग्रन्थों के वे वाक्य हैं उन ग्रन्थों के पाठको आधार माना है। तात्पर्य यह कि जितना जो कुछ भी शुद्ध किया है या शुद्धपाठ सुझाया है वह यथासम्भव साधार किया गया है और वह सब ब्रेकिटमें ही किया है। इससे मूल आदर्श प्रतिके पाठकी सुरक्षा भी हो गई है। अवतरणनिर्देश ग्रन्थान्तरों के उद्धृत वाक्यों को हमने " " डबल इन्वर्टेड कामा के भीतर * इस प्रकार का चिह्न लगाकर ग्रेट नं० २ टाइप में छापा है । अवतरण वाक्यों के साथ या स्वतन्त्र भाव से आये हुए ग्रन्थ और ग्रन्थकारों के नाम चालू टाइप में धर्म कीर्ति इस प्रकार अक्षर फैलाकर छापे हैं। अवतरणवाक्यों के मूलस्थलों का निर्देश यथासंभव अवतरण वाक्य की समाप्ति के बाद [ ] चतुष्कोण ब्रेकिट में वहीं कर दिया है। उनमें जो पाठभेद है वह नीचे टिप्पणी में दे दिया है । जो शुद्धि की है वह ऊपर ही ब्रेकिट में कर दी है । कुछ अवतरण ग्रन्थकार के या ग्रन्थ के नामोल्लेख के साथ तो आते हैं, पर उस ग्रन्थ में उनका वह क्रम या स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जैसा कि प्रकृत ग्रन्थ में उधृत है, ऐसे स्थलों में हमने जो पाठ उपलब्ध है वह नीचे टिप्पण में दे दिया है । विभिन्न ग्रन्थों में अवतरणों के जो विभिन्न पाठ उद्धृत मिलते हैं वे भी यथासंभव टिप्पण में दे दिये हैं। कुछ ऐतिहासिक महत्त्व के अवतरण जहाँ जहाँ जिन जिन ग्रन्थों में जिस जिस पाठभेद के साथ उद्धृत मिलते हैं वे सब पाठभेद और स्थल टिप्पण में संगृहीत कर दिये हैं। ऐसा उन्हीं अवतरणों के संबन्ध में किया है जिनका मूलस्थल नहीं मिला है। जिस ग्रन्थकार के नाम से अवतरण उद्धृत किया है उसका मूल स्थल न मिलने पर उसीके ग्रन्थान्तर से सदृश पाठ भी टिप्पण में इसलिये दे दिया है कि उस विचार का सम्बन्ध उस ग्रन्थकार से सप्रमाण द्योतित हो जाय । अवतरण वाक्यों का ऐतिहासिक क्रमविकास के ज्ञान में जो महत्त्वपूर्ण स्थान है उसका ध्यान रखते हुए उनका विवेक किया गया है । सम्पादक द्वारा विरचित आलोक टिप्पण आलोक नामक टिप्पणमें ग्रन्थकी पंक्ति या शब्दोंका अर्थ स्पष्ट करनेको दृष्टि से अर्थबोधक टिप्पण तो दिये ही गये हैं, साथ ही साथ पाठ शुद्धिके समर्थक टिप्पण, अवतरणोंके उद्धरणस्थल और उनके पाठभेदके संग्राहक टिप्पण भी दे दिये गये हैं। इन टिप्पणोंमें जिन वादियोंके मत पूर्वपक्षमें आये हैं वे मत भी उन उन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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