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________________ [ २ ] प्रायः प्रत्येक शिक्षित भारतवासी विशेषकर हिन्दू, भारतीय दर्शनके जानकार होनेको हामी भरता है, किन्तु दार्शनिक विचारधारासे यथार्थतः अवगत लोगोंकी संख्या सचमुच अत्यल्प है। बहुतोंके लिए तो शंकराचार्यकी वेदान्तव्याख्या अर्थात् अद्वैतवाद ही भारतीय तत्त्वज्ञानका पर्यायवाची बन गया है, तथा ब्रह्म, माया, अज्ञान, अविद्या और मोक्ष सदृश कुछ शब्दोंके उच्चारणमें ही वेदान्तका सारा सार भरा है। किन्तु वस्तुतः यह भारतीय दर्शनका सर्वथा अपूर्ण और भ्रान्त चित्र है । वेदान्तके अध्ययनमें ही अन्य सभी दर्शनों की विशेषकर सांख्य और न्यायदर्शनके विशिष्ट ज्ञानकी परमावश्यकता होती है। स्वयं व्यासने 'वेदान्तसूत्र' के तर्कपादके तीन चौथाई भागमें सांख्यदर्शनका खंडन किया है तथा शेष भागके अधिकांशमें अन्य दर्शनोंका । निराकरण । इनमें बौद्ध तथा जैन दर्शन भी सम्मिलित हैं । यदि हम अालोचना और खंडनकी बातको अलग रखकर भी सोचें तो इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि प्रत्येक दर्शन इतर दर्शनोंसे बराबर प्रभावित हुआ । है। अतः शेष दर्शनोंको छोड़कर केवल किसी एक दर्शनका समुचित अध्ययन संभव ही नहीं है । उपर्युक्त पारस्परिक सम्बन्ध की बात केवल छह हिन्दू दर्शनों तक ही सीमित नहीं है। पहिले तो दर्शनोंकी छह संख्या ही ठीक नहीं जान पड़ती, क्योंकि माधवाचार्यने ही अपने 'सर्वदर्शन संग्रह' में सोलह दर्शनोंका वर्णन किया है। इनमेंसे कुछ तो मुख्य दर्शनोंके ही प्रकारमात्र हैं, किन्तु जिन विशेष बातों को लेकर ये मूलदर्शनसे पृथक् हुए हैं वस्तुतः वे ही बातें सत्यको समझने में मार्गचिह्नका काम करती हैं। जो बात इन परम्परागत दर्शनोंके लिए सही है वही नास्तिक विचारधाराके लिए भी ठीक है। यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक है कि 'श्रास्तिक' एवं 'नास्तिक' शब्दोंका जो अर्थ अाजकल लगाया जाता है वह हमारे धर्म एवं दर्शन साहित्यमें प्रयुक्त इन शब्दोंके अर्थसे भिन्न है । इनका 'ईश्वर' को मानने या न माननेसे कोई सम्बन्ध नहीं है । वस्तुतः जो वेदोंको अन्तिम प्रमाणके रूपमें स्वीकार करता है वह 'पास्तिक' है तथा शेष 'नास्तिक' हैं। इस परिभाषाके अनुसार ही बौद्ध और जैन दर्शन भी नास्तिक माने गये हैं। इसके बावजूद भी भारतीय दर्शनपर इनका बड़ा प्रबल प्रभाव पड़ा है। यद्यपि बौद्ध धर्म इस देशसे प्रायः लुप्त हो गया तथा जैन धर्मावलम्यियों की संख्या भी बहुत थोड़ी है फिर भी इनकी परम्पराओंने भारतीय तत्त्ववेत्ताओंके मनपर गहरी छाप लगाई है, और न केवल आस्तिक विचारोंको अपने सिद्धान्तोंमें संशोधन परिवर्तन करनेके लिए ही बाध्य किया है प्रत्युत ये दर्शन हमारी सार्वजनीन विचारधाराके अभिन्न अंग बन गये हैं। किन्तु दुर्भाग्यकी बात यह है कि केवल कुछ भारतीय पंडित ही इन दर्शनोंका अनुशीलन करते हैं। साधारणतया संस्कृतके पंडित लोग इनका ज्ञान केवल वेदान्तिक ग्रन्थकारों द्वारा की गई इनकी आलोचनात्रोंसे ही प्राप्त करते हैं और इस बातपर तनिक भी विचार नहीं करते कि ये आलोचनाएँ किस हद तक ठीक हैं या तथ्यों पर आधारित हैं। इस देशसे लुप्त हो जानेपर भी बौद्धधर्म संसार की एक बहुत बड़ी जनसंख्याका धर्म हो गया है अतः बहुतसे विचारकोंका ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हुआ है और अंग्रेजी अनुवादोंके सहारे ही सही उसके आधारभूत सिद्धान्तोंका लोगोंने अध्ययन और मनन किया है, लेकिन 'जैनदर्शन' को यह सुयोग भी सुलभ नहीं हो सका। उपर्युक्त पृष्ठभूमिमें यह निर्विवाद है कि श्री महेन्द्र कुमार जैनने इस 'सिद्धिविनिश्चय टीका' का सम्पादन करके भारतीय दर्शन की बहुमूल्य सेवा की है। प्राचार्य अकलंकदेवने सिद्धिविनिश्चय मल और उसकी वृत्ति स्वयं रची है। तत्पश्चात् श्रा० अनन्तवीर्यने उनपर उक्त टीका लिखी। यद्यपि न्यायके अनेक ग्रन्थों में उपर्युक्त ग्रन्थके उद्धरण मिलते हैं किन्तु (मूल सिद्धिविनिश्चय और उसकी वृत्ति की प्रति आज तक उपलब्ध नहीं हुई) केवल सिद्धिविनिश्चय टीका की एक प्रति सर्व प्रथम ई० १६२६ में प्राप्त हुई। इसके सम्पादनमें श्रीमहेन्द्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004038
Book TitleSiddhi Vinischay Tika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnantviryacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages686
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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