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अध्याय- ४
सन्दर्भ
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८-९.
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देसाई, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, कण्डिका ३३२-३३४.
श्रीनवलमल जी बिनौलिया, “श्रीवादिदेवसूरि" जैनसत्यप्रकाश, वर्ष ३, अंक १०-१२,
५१
पृ० ३७५-३८२.
देसाई, पूर्वोक्त कण्डिका ३४३, पृ० २४७-४८.
बिनौलिया, पूर्वोक्त, पृ० ३८२.
देसाई, पूर्वोक्त, कण्डिका ४८७, जिनरत्नकोश, पृ० १००.
P. Peterson, Opration in Search of Sanskrit & Prakrit MSS in Bombay Circle, Vol.
I, App. p-6, Vol. III, App. p-65. Vol. 4, p-XCV.
Muni Punya Vijaya, Ed., New Catalogue of Mss in the Jaina Bhandars at Jesalmer, No. 90,p 192. देसाई, पूर्वोक्त, कण्डिका ५९४.
वही, कण्डिका ६४२-६४४. गुलाबचन्द चौधरी, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६, पृ० २२३-२४.
देसाई, पूर्वोक्त, कण्डिका ६३०,६३३.
रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित उपदेशमालाप्रकरणवृत्ति (जिसका संशोधन इनके ज्येष्ठ गुरुभ्राता भद्रेश्वरसूरि ने किया) तथा अपने गुरु वादिदेवसूरिकृत स्याद्वादरत्नाकर पर रचित लघु टीका नामक कृतियां प्राप्त होती हैं । देसाई, पूर्वोक्त, कण्डिका ४८३. अध्याय ५ के अन्तर्गत लेख तालिका में इसका विवरण प्रस्तुत किया गया है । मुनि जिनविजय, संपा०- प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ३५२. मुनि चतुरविजयजी, संपा० जैनस्तोत्रसन्दोह, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृष्ठ ४८-४९.
मुनि चतुरविजयजी ने उक्त रामचन्द्रसूरि को कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि के शिष्य सुप्रसिद्ध नाट्यकार रामचन्द्रसूरि से अभिन्न माना है । त्रिपुटी महाराज ने भी मुनि चतुरविजयजी के मत का समर्थन किया है । इसके विपरीत मुनि कल्याणविजयजी और पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह उक्त रामचन्द्रसूरि को बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के प्रशिष्य और पूर्णदेवसूरि के शिष्य रामचन्द्रसूरि से अभिन्न बतलाया है । प्रो० एम. ए. ढांकीने भी विभिन्न अकाट्य साक्ष्यों के आधार पर मुनि कल्यणविजयजी एवं शाहजी के मत की पुष्टि की है । " कवि रामचन्द्र अने कवि सागरचन्द्र', सम्बोधि, वर्ष ११, अंक १-४, पृष्ठ ६८-७८. F. Keilhorn, "Sundha Hill Inscription of Cacigadeva, Vikram Samvat 1319. " Epigraphiya Indica, Vol IX - 1907-08, p. 79.
पूरनचन्द्र नाहर, जैनलेखसंग्रह, भाग-१, लेखांक ४३.
हीरालाल रसिकलाल कापडिया, जैनसंस्कृत साहित्यनो इतिहास, द्वितीय संस्करण, संपा० आ० मुनिचन्द्रसूरि, भाग-२, पृष्ठ ३२६. जिनरत्नकोश, पृष्ठ ३५४.
A. P. Shah, Ed. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Ac. Vijayadevasuries and Ac Ksantisuries collections, Part IV, L. D. Series No. 20, p. 95.
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