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बृहद्गच्छ का इतिहास (२) महारा(ज)।धिराजश्री(कु)मारपालदेवकारिते श्रीपा
(व)नाथसत्कम्(ल)विंव(बिंब)सहितश्रीकुवरविहाराभिधाने जैनचैत्ये। सद्विधिप्रव(र्त)नाय वृ(बृ)
हद्गच्छीयवा - (३) दींद्रश्रीदेवाचार्याणां पक्षे आचंद्राक्कं समर्पिते ।। सं०
१२४२ वर्षे एतद्देसा (शा) धिपचाहमानकुलतिलकम
हाराजश्रीसमरसिंहदेवादेशेन भां० पासूपुत्र भां० यशो(४) वीरेण स(मु)द्धते श्रीमद्राजकुलादेशेन श्रीदे(वा)चार्य
शिष्यैः श्रीपूर्णदेवाचार्यैः। सं० १२५६ वर्षे ज्येष्ठसु० ११ श्रीपार्श्वनाथदेवे तोरणादीनां प्रतिष्ठाकार्ये कृते। मूलशिखरे व(च)कनकमयध्वजादंडस्य ध्वजारोपणप्रतिष्ठायां कृतायां ॥ सं० १२६८ वर्षे दीपोत्सवदिने अभिनवनिष्पन्नमेक्षामध्यमंडपे श्रीपूर्णदेवसूरिशिष्यैः श्रीरामचंद्राचार्यै(:) सुवर्णमयकलसारोपणप्रतिष्ठा कृता।।
सु(शु)भ भवतु ॥छ।। यह लेख कुमारविहार, जालौर का है । इससे ज्ञात होता है कि वि० सं० १२२१ में चौलुक्यनरेश कुमारपाल ने सुवर्णगिरि दुर्ग पर पार्श्वनाथ का एक जिनालय निर्मित कराया था और उसे सद्विधि के प्रवर्तानादि बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के पक्ष को समर्पित कर दिया था । वि० सं० १२४२ में चौहान नरेश समरसिंह के आदेश से भाण्डागारिक पासु के पुत्र भाण्डागारिक यशोभद्र ने इसका पुनरुद्धार कराया । वि० सं० १२५६ ज्येष्ठ सुदि ११ को श्रीदेवाचार्य (वादिदेवाचार्य) के शिष्य पूर्णदेवाचार्य ने राजकीय आदेश से पार्श्व जिनालय के तोरणादि की प्रतिष्ठा व मूल शिखर पर सुवर्णमय ध्वजादंड प्रतिष्ठा व ध्वजारोहण किया । वि० सं० १२६८ में नवनिर्मित प्रेक्षामंडप में श्रीपूर्णदेवाचार्य के शिष्य रामचंद्रसूरि ने सुवर्णकलशों को प्रतिष्ठापूर्वक चढ़ाया ।
रामचन्द्रसूरि जन्मान्ध किन्तु विद्वान् आचार्य थे । उनके द्वारा संस्कृत भाषा में रची गयी ८ द्वात्रिंशिकायें एक चर्तुविंशतिका एवं १७ षोडषिकायें मिलती हैं ।१३ इन्ही के शिष्य जयमंगलसूरि द्वारा सुंधा पहाड़ी पर स्थित चामुंडा मंदिर पर वि० सं० १३१८
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