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अध्याय-४ ४- गाथाकोश
१४- सामान्यगुणोपदेशकुलक ५- अनुशासनांकुशकुलक
१५- हितोपदेशकुलक ६-७- उपदेशामृतकुलक प्रथम और द्वितीय
१६- कालशतक ८- उपदेशपंचासिका
१७- मंडलविचारकुलक ९-१०- धर्मोपदेशकुलक प्रथम और द्वितीय १८- द्वादश वर्ग ___मुनिचन्द्रसूरि के ख्यातिनाम शिष्यों में वादिदेवसूरि और अजितदेवसूरि प्रमुख थे । इनमें से वादिदेवसूरि और उनकी शिष्य-परम्परा के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है । वादिदेवसूरि
ये आचार्य मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य और पट्टधर थे। आबू से २५ मील दूर मडार नामक स्थान में वि०सं० ११४३/ई०स० १०८७ में इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम वारिनाग और माता का नाम जिनदेवी था। आचार्य मुनिचन्द्रसूरि के उपदेश से माता-पिता ने बालक को उन्हें सौंप दिया और उन्होंने वि०सं० ११५२/ई०स० १०९६ में इन्हें दीक्षित कर मुनि रामचन्द्र नाम रखा। वि०सं० ११७४/ई०स० १११८ में इन्होंने आचार्य पद प्राप्त किया और देवसूरि के नाम से विख्यात हुए।२ वि०सं० ११८१-८२/ई०स० १०२४ में चौलुक्यनरेश जयसिंह-सिद्धराज की राजसभा में इन्होंने कर्णाटक से आये दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया और वादिदेवसूरि के नाम से विख्यात हुए। आचार्य हेमचन्द्रसूरि इस शास्त्रार्थ में वादिदेवसूरि के कनिष्ठ सहयोगी के रूप में विद्यमान थे। वादविषयक ऐतिहासिक उल्लेख कवि यशश्चन्द्रकृत मुद्रितकुमुदचन्द्र३ में प्राप्त होता है। ये गुजरात के प्रमाणशास्त्र के श्रेष्ठ विद्वानों में से थे। इन्होंने प्रमाणशास्त्र पर प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार नामक ग्रन्थ ८ परिच्छेदों में रचा और उस पर स्याद्वादरत्नाकर नामक बड़ी टीका की भी रचना की। इस ग्रन्थ की रचना में इन्हें अपने शिष्यों- भद्रेश्वरसूरि और रत्नप्रभसूरि से सहायता प्राप्त हुई। इनके द्वारा रचित अन्य रचनायें निम्नानुसार हैं :
जीवानुशासन मुनिचन्द्राचार्यस्तुति गुरुविरहविलाप
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