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बृहद्गच्छ का इतिहास
सर्वदेवसूरि के ५वें शिष्य के रूप में उपा० विनयचन्द का नाम मिलता है। इनके शिष्य मुनिचन्द्रमुनि को शांतिसूरि के गुरु नेमिचन्द्रसूरि ने अपना पट्टधर बनाया था। इन्हीं मुनिचन्द्रमुनि ने शांतिसूरि से पृथ्वीचंद्रचरित की रचना के लिए प्रार्थना की थी । १७ इस प्रकार सर्वदेवसूरि के ८ शिष्यों में से ५ शिष्यों १- यशोभद्रसूरि; २नेमिचन्द्रसूरि; ३- श्रीचन्द्रसूरि ४- धनेश्वरसूरि और ५- उपा० विनयचन्द्र के नाम ज्ञात हो जाते हैं। शेष तीन शिष्यों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती।
वि०स० ११४९ में पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक चन्द्रप्रभसूरि १८ के प्रगुरु सर्वदेवसूरि भी उक्त सर्वदेवसूरि से समसामयिकता, नामसाम्य आदि को देखते हुए अभिन्न माने जा सकते हैं।
जैसा कि प्रारम्भ में हम देख चुके हैं यशोभद्रसूरि और नेमिचन्द्रसूरि के शिष्य मुनिचन्द्रसूरि से बृहद्गच्छ की परम्परा आगे बढ़ी। इसी प्रकार नेमिचन्द्रसूरि के दूसरे शिष्य व श्रीचन्द्रसूरि द्वारा आचार्यपद प्राप्त शांतिसूरि से पिप्पलगच्छ१९ अस्तित्त्व में आया । द्रष्टव्य तालिका-३
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