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आम्रदेवसूरि ने अपने गुरुभ्राता श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य हरिभद्रसूरि, ४ जिन्हें अपना मुख्य पट्टधर बनाया था, द्वारा रचित मल्लिनाहचरिय, चंदप्पहचरिय, नेमिनाथचरित नामक कृतियां मिलती हैं। 4 अनंतनाथचरिय के अलावा नेमिचन्द्रसूरि ने प्रवचनसारोद्धार नामक कृति की भी रचना की । ६
अध्याय-३
चन्द्रकुल में शांतिसूरि नामक एक आचार्य हुए जिन्होंने वि०सं० ११६१ / ई०स० ११०५ में प्राकृत भाषा में पुहवीचंदचरिय ( पृथ्वीचन्द्रचरित) की रचना की । ७ इसकी प्रशस्ति में उन्होंने स्वयं को सर्वदेवसूरि का प्रशिष्य और नेमिचन्द्रसूरि का शिष्य बतलाया है तथा यह भी कहा है कि ग्रन्थकार के प्रगुरु के शिष्य श्रीचन्द्रसूरि ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया। ( प्रशस्ति गाथा २८८) ८
यहाँ ‘ग्रन्थकार का पक्ष लेकर श्रीचन्द्रसूरि ने उन्हें आचार्य पद दिया' ऐसे स्ववक्तव्य से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्रन्थकार शांतिसूरि के गुरु नेमिचन्द्रसूरि को उन्हें आचार्य पद देना अभीष्ट न था, फिर भी ग्रन्थकार ने अपने गुरु के प्रति प्रशस्तिगाथा (२८६) में अत्यधिक सम्मान प्रकट किया है। प्रशस्ति गाथा ( २८५) से यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रन्थकार के प्रगुरु सर्वदेवसूरि से अनेक शाखाओं - प्रशाखाओं वाला गच्छ बना था । ९
ग्रन्थकार को आचार्य धनेश्वरसूरि से विद्याभ्यास विषयक विभिन्न मार्गदर्शन मिला था, ऐसा स्वयं ग्रन्थकार ने ही उल्लेख किया है । ग्रन्थकार के प्रगुरु सर्वदेवसूरि के पट्टशिष्य के रूप में ८ आचार्य थे। १० जैसा कि पूर्व में हम देख चुके हैं बृहद्गच्छीय आचार्य मुनिचन्द्रसूरि भी अपने प्रगुरु के रूप में सर्वदेवसूरि व गुरु के रूप में यशोभद्रसूरि एवं नेमिचन्द्रसूरि का उल्लेख करते हैं । ११ तपागच्छीय मुनिसुन्दरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली (रचनाकाल वि०सं० १४६६ / ई०स० १४१०) में भी सर्वदेवसूरि के उक्त दो शिष्यों का नाम आ चुका है। १२ शेष ६ पट्टधरों में से तीसरे श्रीचन्द्रसूरि (प्रशस्ति गाथा २८८) और चौथे धनेश्वरसूरि जिनका ग्रन्थकार ने अपने विद्यागुरु के रूप में उल्लेख किया है, का नाम हम ऊपर देख चुके हैं। धनेश्वरसूरि से चैत्रगच्छ अस्तित्त्व में आया।' । १३ धनेश्वरसूरि के पट्टधर भुवनचन्द्रसूरि और भुवनचन्द्रसूरि के पट्टधर देवभद्रगणि हुए जिनके पास जगच्चन्द्रसूरि ने उपसम्पदा ग्रहण की। जगच्चन्द्रसूरि से वि०सं० १२८५ में तपागच्छ अस्तित्त्व में आया । १४ जगच्चन्द्रसूरि के दो शिष्यों विजयचन्द्रसूरि और देवेन्द्रसूरि से तपागच्छ की बृहद्पौशालिक १५ एवं लघुपौशालिक १६ शाखायें निकलीं।
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