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अध्याय-२ परन्तु बाद में उनके मन में चैत्यवास के प्रति विरोध की भावना जागृत हुई और उन्होंने अपने गुरु से आज्ञा लेकर सुविहितमार्गीय आचार्य उद्योतनसूरि से उपसम्पदा ग्रहण की।
गणधरसार्यशतक की गाथा ६१-६३ में देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि और उद्योतनसूरि के बाद वर्धमानसूरि का उल्लेख है१५ । पूर्व प्रदर्शित देवेन्द्रगणि अपरनाम नेमिचन्द्रसूरि की गुरु-परम्परा की तालिका में देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि 'प्रथम', उद्योतनसूरि ‘द्वितीय' के पश्चात् आम्रदेवसूरि 'प्रथम' का उल्लेख हैं१६। इस प्रकार उद्योतनसूरि ‘द्वितीय' के दो शिष्यों - वर्धमानसूरि और आम्रदेवसूरि 'प्रथम' – का अलग-अलग साक्ष्यों से उल्लेख प्राप्त होता है। इस आधार पर वर्धमानसूरि और आम्रदेवसूरि 'प्रथम' परस्पर गुरुभ्राता सिद्ध होते हैं। किन्तु जहां एक और वर्धमानसूरि और उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि विक्रमसम्वत् की ११वीं शती के अंतिमचरण और १२वीं शती के प्रथम दशक के आचार्य हैं वहीं दूसरी और आम्रदेवसूरि 'प्रथम' तथा उनके शिष्य देवेन्द्रगणि अपरनाम नेमिचन्द्रसूरि ‘तृतीय'का सत्ता समय विक्रम सम्वत् की १२वीं शती का प्रथमद्वितीय चरण सुनिश्चित है । इस प्रकार दोनों गुरु भ्राताओं-वर्धमानसूरि और आम्रदेवसूरि 'प्रथम' तथा उनके शिष्यों के मध्य लगभग ४० वर्षों का दीर्घ अन्तराल भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है जो कि सामान्य रूप से अति कठिन प्रतीत होता है किन्तु ऐसा होना नितान्त असम्भव भी नहीं माना जा सकता । आम्रदेवसूरि 'प्रथम' की शिष्य-परम्परा, जिसमें देवेन्द्रगणि अपरनाम नेमिचन्द्रसूरि ‘तृतीय' हुए, की ऊपर चर्चा की जा चुकी है। अब वर्धमानसूरि की शिष्य-परम्परा पर भी प्रसंगवश प्रकाश डालना आवश्यक है।
वर्धमानसूरि के शिष्य के रूप में जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि का उल्लेख प्राप्त होता है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि जिनेश्वरसूरि ने चौलुक्यनरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर विधिमार्ग का समर्थन किया था।
जिनेश्वरसूरि के ख्यातिनाम शिष्यों में नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि, सुरसुंदरीचरियं के रचनाकार जिनभद्र अपरनाम धनेश्वरसूरि और जिनचन्द्रसूरि के उल्लेख प्राप्त होते हैं।१७ इनमें से अभयदेवसूरि की शिष्य-परम्परा आगे चली।
___ अभयदेवसूरि के प्रमुख शिष्यों में प्रसन्नचन्द्रसूरि, देवभद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि और वर्धमानसूरि 'द्वितीय' के उल्लेख मिलते हैं।१८ देवभद्रसूरि ने जिनवल्लभसूरि और जिनदत्तसूरि को आचार्य पद प्रदान किया।१९
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