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अध्याय-७
२०७
वर्षों में (वि०सं० १३५० से वि०सं० १४६३ ) इस शाखा से सम्बद्ध कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अतः यह सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि दोनों सोमदेवसूरि एक ही व्यक्ति हो सकते हैं और लेख के वाचनाकार की भूल से वि०सं० १४५० की जगह वि०सं० १३५० लिख दिया गया। इस सम्भावना को स्वीकार कर लेने पर रत्नपुरीयशाखा की वि०सं० १४५० से वि०सं० १५५७ की एक अविच्छिन्न परम्परा ज्ञात हो जाती है :
I
धर्मघोषसूरि (वि०सं० १३(४)५०)
1
सोमदेवसूरि (वि०सं० १३ (४) ५०) एक प्रतिमालेख
I
धनचन्द्रसूरि (वि०सं० १४६३) एक प्रतिमालेख
1
धर्मचन्द्रसूरि (वि०सं० १४८० - १५१० ) छह प्रतिमालेख
I
कमलचन्द्रसूरि (वि०सं० १५३४ - १५४५) चार प्रतिमालेख
इस शाखा के प्रवर्तक कौन थे, यह शाखा कब अस्तित्व में आयी, इस बारे में प्रमाणों के अभाव में कुछ भी कह पाना कठिन है। अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर वि०सं० की १५वीं शताब्दी के मध्य से वि०सं० की १६वीं शताब्दी के मध्य तक इस शाखा का अस्तित्व सिद्ध होता है।
जाखड़ियाशाखा मडाहडगच्छ की इस शाखा का उल्लेख करने वाले ५ प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं। इनमें कमलचन्द्रसूरि तथा गुणचन्द्रसूरि का नाम मिलता है। इनका विवरण इस प्रकार है :
वि०सं० १५३५ माघ वदि ६ मंगलवार वि०सं० १५४७ ज्येष्ठ सुदि २ मंगलवार वि०सं० १५६० वैशाख सुदि ३ बुधवार वि०सं० १५७५ फाल्गुन वदि ४ गुरुवार
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