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बृहद्गच्छ का इतिहास _ वि०सं० १५७५ के लेख१९ में मडाहडगच्छ की शाखा के रूप में नहीं अपितु स्वतन्त्र रूप से जाखड़ियागच्छ के रूप में इसका उल्लेख मिलता है।
इस शाखा के भी प्रवर्तक कौन थे तथा यह कब और किस कारण से अस्तित्व में आयी, इस बारे में आज कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है। सन्दर्भ १. बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित उपदेशमालाप्रकरणवृत्ति (रचनाकाल वि०सं०
१२३८/ईस्वी सन् ११८२) की प्रशस्ति
Muni Punya Vijaya - Catalogue of Palm-Leaf Mss in the Shanti Nath Jain Bhandar, Cambay, pp. 284 - 286. तपागच्छीय मुनिसुन्दरसूरि द्वारा रचित गुर्वावलि (रचनाकाल वि०सं० १४६६/ईस्वी सन् १४०९) तपागच्छीय हीरविजयसूरि के शिष्य धर्मसागर द्वारा रचित तपागच्छपट्टावली (रचनाकाल वि०सं० १६४८/ईस्वी सन् १५९२).
इस सम्बन्ध में विस्तार के लिए द्रष्टव्य इसी पुस्तक के अन्तगर्त अध्याय २. २. मुनि जिनविजय, सम्पा० विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह, पृ० ५२-५५. ३. मुनि जयन्तविजय, अर्बुदाचलप्रदक्षिणा, पृ० ६७-७७. ४. मडाहडा गच्छ से सम्बन्ध प्रतिमालेखों के विस्तृत विवरण के लिये द्रष्टव्य शिवप्रसाद, जैन श्वेताम्बर
गच्छों का संक्षिप्त इतिहास, भाग २, पृ० ११४०-११७४. ५. अगरचन्दनाहटा, “मडाहडागच्छ” जैनसत्यप्रकाश, वर्ष २१, अंक ३, पृ० ४७-४८. ६. R.C. Majumdar and A.D. Pusalkar, The Delhi Sultanate, Bombay 1960 A.D.,
pp. 331,384.
७. द्रष्टव्य संदर्भ क्रमांक ४. ८-९. अगरचन्द भंवरलाल नाहटा – “मड्डाहडागच्छ की परम्परा", जैनसत्यप्रकाश, वर्ष २०, अंक ५,
पृ० ९५-९८. १०. चक्रेश्वरसूरि बृहद्गच्छ के प्रभावक आचार्य थे, उनके द्वारा वि०सं० ११८७ से वि०सं० १२०८ तक
प्रतिष्ठापित कई जिनप्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं, ग्रन्थप्रशस्तियों में भी इनका उल्लेख प्राप्त होता है। मोहनलालदलीचन्द देसाई, जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, बम्बई १९३३ ईस्वी, पृ० २८०.
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