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अध्याय-७
१६७ अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर पूर्णिमागच्छ के कुछ अन्य मुनिजनों के भी पूर्वापर सम्बन्ध स्थापित होते हैं, परन्तु उनके आधार पर इस गच्छ की गुरु-परम्परा की किसी तालिका को समायोजित कर पाना कठिन है। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
१. जयप्रभसूरि (वि०सं० १४६५) २. जयप्रभसूरि के पट्टधर जयभद्रसूरि (वि०सं० १४८९-१५१९) ३. विद्याशेखरसूरि (वि०सं० १४७३-१४८१) ४. जिनभद्रसूरि (वि०सं० १४७३-१४८१) ५. जिनभद्रसूरि के पट्टधर धर्मशेखरसूरि (वि०सं० १५०३-१५२०) ६. धर्मशेखरसूरि के पट्टधर विशालराजसूरि (वि०सं० १५२५-१५३०) ७. वीरप्रभसूरि (वि०सं० १४६४-१५०६) ८. वीरप्रभसूरि के पट्टधर कमलप्रभसूरि (वि०सं० १५१०-१५३३)
अभिलेखीय साक्ष्यों से पूर्णिमागच्छ के अन्य मुनिजनों के नाम भी ज्ञात होते हैं, परन्तु वहां उनकी गुरु-परम्परा का नामोल्लेख न होने से उनके परस्पर सम्बन्धों का पता नहीं चल पाता। साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर संकलित गुरु-शिष्य-परम्परा (तालिका संख्या १) के साथ भी इन मुनिजनों का पूर्वापर सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता, फिर भी इनसे इतना तो स्पष्ट रूप से सुनिश्चित हो जाता है कि इस गच्छ के मुनिजनों का श्वेताम्बर जैन समाज के एक बड़े वर्ग पर लगभग ४०० वर्षों के लम्बे समय तक व्यापक प्रभाव रहा।
अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित गुरु-शिष्य परम्परा की तालिका संख्या ३ का साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर संकलित गुरु-शिष्य परम्परा की तालिका संख्या १ के साथ परस्पर समायोजन सम्भव नहीं हो सका, किन्तु तालिका संख्या १ और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर संकलित तालिका संख्या २ के परस्पर समायोजन से पूर्णिमागच्छीय मुनिजनों की जो विस्तृत तालिका बनती है, वह इस प्रकार है :
द्रष्टव्य - तालिका संख्या - ४
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