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बृहद्गच्छ का इतिहास बृहद्गच्छ के उल्लेख वाली प्राचीनतम प्रशस्तियाँ विक्रम सम्वत् की १२वीं शताब्दी के मध्य की हैं। इस गच्छ के उत्पत्ति के विषय में चर्चा करने वाली सर्वप्रथम प्रशस्ति वि०सं० १२९१/ई०स० १२३४ में बृहद्गच्छीय आचार्य वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि द्वारा रचित उपदेशमालाप्रकरणवृत्ति? की है, जिसके अनुसार आचार्य उद्योतनसरि ने अबूंद गिरि की तलहटी में स्थित धर्माण नामक सन्निवेश में न्यग्रोध वृक्ष के नीचे सात ग्रहों के शुभ लग्न को देखकर सर्वदेवसूरि सहित आठ मुनिजनों को एक साथ आचार्य पद दिया। सर्वदेवसूरि इस गच्छ के प्रथम आचार्य हुए। तपागच्छीय आचार्य मुनिसुन्दरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली (रचनाकाल वि०सं० १४६६/ई०स० १४१०); इसी गच्छ के आचार्य हीरविजयसूरि के शिष्य धर्मसागर उपाध्याय द्वारा रचित तपागच्छपट्टावली३ (रचनाकाल वि०सं० १६४८/ई०स० १५९१) और मुनिमाल द्वारा रचित बृहद्गच्छ गुर्वावली (रचनाकाल वि०सं० १६१०/ई०स० १५५४ के आसपास) के अनुसार “वि० सं० ९९४ में अर्बुदगिरि की तलहटी में टेली नामक ग्राम में स्थित एक वटवृक्ष के नीचे आचार्य उद्योतनसूरि द्वारा सर्वदेवसूरि सहित आठ मुनिजनों को आचार्य पद प्रदान किया गया। इस प्रकार निर्ग्रन्थ श्वेताम्बर संघ में एक नये गच्छ का उदय हुआ जो वटवृक्ष के नाम को लेकर वटगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।" चूँकि वटवृक्ष की शाखाओं-प्रशाखाओं के समान इस गच्छ की भी अनेक शाखायेंप्रशाखायें हुईं, अत: इनका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ा । ___गच्छ निर्देश सम्बन्धी धर्माण सन्निवेश के सम्बन्ध में दो दलीलें पेश की जा सकती
_प्रथम यह कि उक्त मत एक स्वगच्छीय आचार्य द्वारा उल्लिखित है और दूसरे १५वीं शताब्दी के तपागच्छीय साक्ष्यों से लगभग दो शताब्दी प्राचीन भी है। अत: उक्त मत को विशेष प्रामाणिक माना जा सकता है।
___ जहाँ तक धर्माण सन्निवेश का प्रश्न है, आबू के निकट उक्त नाम का तो नहीं बल्कि वरमाण नामक स्थान है, जो उस समय भी जैन तीर्थ के रूप में मान्य रहा। अतः यह कहा जा सकता है कि लिपिदोष से वरमाण की जगह धर्माण हो जाना असम्भव नहीं।
सबसे पहले हम इस गच्छ के आचार्यों की गुर्वावली को, जो ग्रन्थ प्रशस्तियों, पट्टावलियों एवं अभिलेखों से प्राप्त होती है, एकत्र कर विद्यावंशवृक्ष तैयार करने का
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