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अध्याय - २ बृहद्गच्छ का प्रारम्भिक इतिहास
निर्ग्रन्थ दर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय का प्राक् मध्ययुग व मध्ययुग का इतिहास मुख्य रूप से चन्द्रकुल की अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं के रूप में उद्भूत विभिन्न गच्छों का ही इतिहास है। इन गच्छों में बृहद्गच्छ भी एक है। चौलुक्य नरेश दुर्लभराज (वि०सं० १०६७-७८/ई०स० १०१०-२१) की राजसभा में चैत्यवासियों और सुविहितमार्गीय मुनिजनों के मध्य जो शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें सुविहितमार्गियों की विजय हुई। इन सुविहितमार्गियों में बृहद्गच्छ के भी आचार्य थे। आज प्रवर्तमान सभी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गच्छ- खरतरगच्छ, अंचलगच्छ और तपागच्छ तथा पार्श्वचन्द्रगच्छ (जो चन्द्रकुल की एक शाखा बृहद्गच्छ से ही अस्तित्व में आया है) चन्द्रकुल से ही अपनी उत्पत्ति बतलाते हैं।
बृहद्गच्छ में विभिन्न प्रभावक और विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं जिनमें देवेन्द्रगणि अपरनाम नेमिचन्द्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, वादिदेवसूरि, रामचन्द्रसूरि, आम्रदेवसूरि, प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रन्थों के कर्ता नेमिचन्द्रसूरि, हरिभद्रसूरि, हेमचन्द्रसूरि, सोमप्रभसूरि, शांतिसूरि, जयमंगलसूरि, सुल्तान मुहम्मद तुगलक द्वारा सम्मानित गुणभद्रसूरि तथा फिरोज तुगलक द्वारा सम्मानित उनके शिष्य मुनिभद्रसूरि आदि उल्लेखनीय हैं ।
जैसा कि प्रथम अध्याय में हम देख चुके हैं बृहद्गच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए हमारे पास दो प्रकार के साक्ष्य हैं - १. साहित्यिक और २. अभिलेखीय।
साहित्यिक साक्ष्यों को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है, प्रथम तो ग्रन्थों एवं पुस्तकों की प्रशस्तियाँ और द्वितीय पट्टावलियाँ और गुर्वावलियाँ।
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