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बृहद्गच्छ का इतिहास १. सं० १५२८ वर्षे वैशाष (ख) विदि (वदि) सोमे श्रीश्रीमालज्ञातीय सं० सामल भार्या वान्ह सुतसं. हासाकेन भार्या वीजू द्वितीय भार्या सहिजलदे सुत समधर कीका युतेन श्रीचन्द्रप्रभ- चतुर्विशतिपट्ट (:) कारितः प्र० पिप्पलगच्छे तालध्वजीय श्रीगुणरत्नसूरिपट्टे पू० श्रीगुणसागरसूरिभिः घोघा वास्तव्य श्रीः।
- विजयधर्मसूरि- सम्पा० प्राचीनलेखसंग्रह, लेखाङ्क ४१६ २. सं० १५५९ फागुण सुदि ७ दिने श्रीश्रीमालज्ञातीय साहमणिकभा० अपूरवपु० भाइआकेन स्वमातृपित्रोः श्रेयसे श्रीसंभवनाथबिंबं कारितं तलाझीआ श्रीशांतिसूरिभिः प्रतिष्ठितं।
- बुद्धिसागरसूरि- सम्पा० जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग-२, लेखाङ्क ३०२ प्रथम लेख में गुणरत्नसूरि के पट्टधर गुणसागरसूरि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख है। पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों के आधार पर पूर्वप्रदर्शित आचार्यपरम्परा की छोटी-छोटी तालिकाओं में से एक में गुणरत्नसूरि के शिष्य गुणसागरसूरि का नाम आ चुका है।
शांतिसूरि
गुणरत्नसूरि (वि०सं०१५०७-१५१७) प्रतिमालेख
गुणसागरसूरि (वि०सं०१५१७-१५४६) प्रतिमालेख अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित पिप्पलगच्छीय गुणसागरसूरि (वि०सं०१५१७१५४६/प्रतिमालेख) और तालध्वजीयाशाखा के गुणसागरसूरि (वि०सं०१५२८/ प्रतिमालेख) को समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर एक ही व्यक्ति मानने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती। ठीक इसी प्रकार तालध्वजीयाशाखा के शांतिसूरि (वि०सं०१५५९/प्रतिमालेख) और पिप्पलगच्छीय शांतिप्रभसूरि (वि०सं०१५५४/ प्रतिमालेख)१७ को एक ही व्यक्ति माना जा सकता है ।
इसी प्रकार लेख के प्रारम्भ में साहित्यिक साक्ष्यों में उल्लिखित कालकसूरिभास (रचनाकाल वि०सं०१५१४/ई०सन् १४५७) और कल्पसूत्रआख्यान के रचनाकार पिप्पलगच्छीय आनन्दमेरु १८ के गुरु गुणरत्नसूरि भी समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर तालध्वजीयाशाखा के ही गुणसागरसूरि (वि०सं०१५१७-१५४६/प्रतिमालेख) के गुरु गुणरत्नसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं। ठीक यही बात पार्श्वनाथपत्नी
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