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| पिप्पलगच्छ का इतिहास
निर्ग्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर आम्नाय के अन्तर्गत पूर्वमध्यकाल और मध्यकाल में विभिन्न गच्छों के रूप में अनेक भेद-प्रभेद उत्पन्न हुए । जैसा कि इसी पुस्तक द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में ही हम देख चुके हैं कि चन्द्रकुल (बाद में चन्द्रगच्छ) के आचार्य उद्योतनसूरि ने वि०सं० ९९४/ई०सन् ९३८ में अर्बुदगिरि की तलहटी में स्थित धर्माण (वरमाण) नामक सन्निवेश में वटवृक्ष के नीचे अपने आठ शिष्यों को आचार्य पद प्रदान किया, जिनकी शिष्यसन्तति वटवृक्ष के कारण वडगच्छीय कहलायी।१ इसी गच्छ में विक्रम सम्वत् की १२वीं शती के मध्य में आचार्य सर्वदेवसूरि, उनके शिष्य आचार्य शांतिसूरि और प्रशिष्य विजयसिंहसूरि हुए। पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध उत्तरकालीन साक्ष्यों के अनुसार आचार्य शांतिसूरि ने पीपलवृक्ष के नीचे विजयसिंहसूरि आदि ८ शिष्यों को आचार्य पद दिया, इस प्रकार वडगच्छ की एक शाखा के रूप में पिप्पलगच्छ का उद्भव हुआ।
__ अन्यान्य गच्छों की भाँति पिप्पलगच्छ से भी अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ। विभिन्न साक्ष्यों से इस गच्छ की त्रिभवीयाशाखा और तालध्वजीयाशाखा का पता चलता है।
पिप्पलगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए भी साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं । साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के परवर्ती मुनिजनों द्वारा रची गयी कुछ कृतियों की प्रशस्तियों में उल्लिखित गुरु-परम्परा के साथसाथ इसी गच्छ के धर्मप्रभसूरि नामक मुनि के किसी शिष्य द्वारा रचित पिप्पलगच्छगुर्वावली तथा किसी अज्ञात कवि द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित पिप्पलगच्छगुर्वावली-गुरहमाल का उल्लेख किया जा सकता है। अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों की
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