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बृहद्गच्छ का इतिहास अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित शेष अन्य मुनिजनों के गुरु-परम्परा के सम्बन्ध में साक्ष्यों के अभाव में यद्यपि कुछ भी कह पाना कठिन हैं फिर भी सुनिश्चित है कि इस गच्छ में मुनिजनों की संख्या पर्याप्त थी और समाज पर उनका व्यापक प्रभाव था। वि० सं० की १७वीं शताब्दी में स्थानकवासी सम्प्रदाय छोड़ कर प्रायः अन्य सभी गच्छों का द्रुतगति से प्रभाव क्षीण होने लगा। यद्यपि अनेक गच्छ बाद की शताब्दियों में भी अस्तित्त्व में रहे, परन्तु उनका प्रभाव नाममात्र का ही शेष रहा। वि०सं० की १९वीं शती के प्रथम चरण तक विद्यमान बृहद्गच्छ८ के बारे में भी यही बात कही जा सकती है।
सन्दर्भ : १. मुनि जिनविजय, प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक १८४, द्रष्टव्य - बृहद्गच्छीय
अभिलेखीय साक्ष्यों की सूची के अन्तर्गत लेख क्रमांक ३. २. नन्दलाल लोढ़ा, “माण्डवगढ के तारापुर मंदिर का शिलालेख" जैनसत्यप्रकाश, वर्ष ३, अंक
१, पृष्ठ ४४-४८. ३. द्रष्टव्य बृहद्गच्छीय अभिलेखीय साक्ष्यों की सूची के अन्तर्गत लेख क्रमांक ८. ४. बृहद्गच्छीय अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा निर्मित तालिका क्रमांक २. ५. बृहद्गच्छीय अभिलेखीय साक्ष्यों की सूची के अन्तर्गत लेख क्रमांक १६४; महोपाध्याय
विनयसागर, नाकोड़ा तीर्थ श्रीपार्श्वनाथ, लेख क्रमांक ३४, पृष्ठ १०८.
त्रिपुटी महाराज, जैन परम्परानो इतिहास, भाग-२, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ४६१. ७. मुनि कल्याणविजय गणि, पट्टावलीपरागसंग्रह, पृष्ठ २३१-२३३.
मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनगुर्जरकविओ, नेवीनसंस्करण, संपा० जयन्त कोठारी, भाग ९,
पृष्ठ २४१-४७. ८. शीतिकंठ मिश्र, हिन्दीजैनसाहित्य का इतिहास, मरु-गूर्जर, भाग ४, पृष्ठ २३०.
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