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बृहद्गच्छ का इतिहास
मुनीश्वरसूरि
रत्नप्रभसूरि
महेन्द्रसूरि
रत्नाकरसूरि
मुनिनिधानसूरि
मेरुप्रभसूरि (वि०सं० १५१८ में प्रतिमाप्रतिष्ठापक) जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं कि वि०सं०१४७९ के एक लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में मुनीश्वरसूरि का नाम आ चुका है। वि०सं० १५१८ के उक्त लेख के अनुसार मुनीश्वरसूरि की ५वीं पीढ़ी में मेरुप्रभसूरि हुए जिन्होंने वि०सं० १५१८ में नाकोड़ा में प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। इस प्रकार हम देखते हैं कि मात्र ४९ वर्षों के अन्तराल में ५पीढ़ी गुजर गयी लगती है जो कि प्रायः असंभव है। इस सम्बन्ध में त्रिपुटीमहाराज द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार भद्रेश्वरसूरि के पश्चात् भट्टारकपद और आचार्यपद अलग-अलग होने लगे।६ इस तथ्य का समर्थन इस बात से भी हो जाता है कि मुनिमाल के गुर्वावली में जहाँ भावदेवसूरि को संयमरत्नसूरि का पट्टधर एवं पुण्यप्रभसूरि का प्रपट्टधर बताया गया है वहीं कल्पातवाच्य की प्रशस्ति में भावदेवसूरि को पुण्यप्रभसूरि का पट्टधर कहा गया है यहाँ संयमरत्नसूरि का नाम भी नहीं मिलता ।
..................तत्पट्टेपुण्यप्रभसूरयः। तत्पट्टे संयमरत्नसूरि - येषां १५६९ वर्षे पदस्थापना। तत्पट्टे पिराइवा गोत्रे लक्ष्मणांगजा लक्ष्मीकुक्षिभवाः, कलिकाल वर्तमान शास्त्राधार बृहद्गच्छाब्धिकुमुदबान्धवतुल्या:, यशः पूताष्टककुभ: श्रीभावदेवसूरीन्द्राः। .......................येषां पदस्थापना १६०४ वर्षे । मुनिमालकृत “बृहद्गच्छगुर्वावली' मुनि जिनविजय, विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह, पृष्ठ ५५.
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