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पेंट कर सकते हैं पेंट करते हैं, तो आप पायेंगे आपकी जिंदगी में सेक्सुअलिटी कम होने लगी। जो हजार ब्रह्मचर्य के नियम लेने से कम नहीं होगी वह कम होने लगेगी, क्योंकि आपकी जिंदगी में सृजनात्मक काम शुरू हो गया।
हर आदमी दुनिया में छोटा-मोटा कवि है, और हर आदमी छोटा-मोटा चित्रकार है, और हर आदमी छोटा-मोटा संगीतज्ञ है, और हर आदमी छोटा-मोटा नृत्यकार है । और सबको यह सब होना चाहिए। और जब आप इसमें से गुजरेंगे तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे कि आपकी जो वासना थी, जो बोझ था चित्त पर शक्ति का, वह सृजनात्मक हो गया। एक बार शक्ति सृजनात्मक होनी शुरू हो तो ऊपर बहनी शुरू होती है। इससे उल्टा भी होता है, अगर आपकी शक्ति सृजनात्मक न हो पाये तो विध्वंसात्मक हो जाती है ।
यह आपको शायद जानकर हैरानी होगी कि हिटलर चित्रकार होना चाहता था, मां-बाप चित्रकार नहीं होने दिया। अब किसी दिन भविष्य की अदालत में शायद यह तय करना मुश्किल होगा कि इस बड़े महायुद्ध के लिए, इतने करोड़ों लोगों के मरने के लिए हिटलर जिम्मेदार है कि उसके मां-बाप जिम्मेवार हैं। क्योंकि हिटलर अगर चित्रकार हो जाता तो कम-से-कम दूसरा महायुद्ध तो नहीं होने वाला था। लेकिन हिटलर चित्रकार नहीं हो पाया। उसके भीतर जो ऊर्जा सृजनात्मक बन सकती थी वह अटक गयी, और विध्वंसक हो गयी । वह कुछ बनाता, वह नहीं बन पाया, उसने कुछ मिटाना शुरू कर दिया। ध्यान रहे अगर आप बनायेंगे नहीं तो आप मिटायेंगे जरूर। अगर आप सृजन नहीं करेंगे तो विध्वंस करेंगे। अगर क्रियेट नहीं करेंगे तो डिस्ट्रक्ट करेंगे। इन दो के बीच उपाय नहीं है । और अगर इन दो के बीच आपको टिकना हो तो फिर आपको ऊर्जाहीन, इंपोटेंसी चाहिए, फिर आपके पास ऊर्जा नहीं होनी चाहिए। अगर ऊर्जा होगी तो ऊर्जा कुछ करेगी, विध्वंस करेगी या निर्माण करेगी, सृजन करेगी या तोड़ेगी या मिटायेगी ।
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तो आप अपनी जिंदगी में- दूसरा सूत्र अकाम की तरफ - सृजनात्मक हों, टु बी क्रियेटिव। दो चार क्षण खोजें, कुछ भी खोजें और सृजन में लग जाएं। बगीचे में काम कर सकते हैं, नाच सकते हैं, गीत गा सकते हैं। गंभीरता को कुछ देर के लिए अलग कर दें, गैर-गंभीर हो जायें, हल्के हो जायें कुछ देर के लिए। जवान न रह जायें, बूढ़े न रह जायें, बच्चे हो जायें। और जो आदमी बुढ़ापे में भी घंटे भर के लिए बच्चा हो जाये तो उसकी जिंदगी बदलनी शुरू हो जाती है। उसकी ऊर्जा फिर बचपन की तरह इकट्ठी होने लगती है।
और तीसरी अंतिम बात... ।
एक, पल-पल जीयें; भविष्य और कामना से मुक्त हों; दो, सृजनात्मक बनें; उपयोगिता काफी नहीं है, अर्थपूर्ण काम काफी नहीं है, अर्थहीन काम की भी जरूरत है । चरित्र ही बनाने में न लगे रहें। थोड़ी-सी लीला भी जीवन में आने दें। और तीसरी अंतिम बात, जब भी मौका मिल जाए तो होशपूर्वक समस्त इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर देखें।
चौबीस घंटे हम बाहर देखते हैं। जब भीतर देखने का मौका आता है तब हम सो गये होते हैं - तब भीतर देखना नहीं हो पाता । यी तो बाहर देखते हैं या नहीं देखते हैं, दो काम हैं
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अकाम
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