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हम चोरी को वस्तुओं की चोरी समझ रहे हैं। समाज चोर है, क्योंकि हमने बहुत गहरे में
सबको चोर होने की ही शिक्षा दी है। ___हम एक बच्चे से कहते हैं कि विवेकानंद जैसे हो जाओ। अब इस बच्चे का क्या कसूर है कि विवेकानंद जैसा हो जाये? विवेकानंद बहुत भले थे, लेकिन इस बच्चे की कौन-सी गलती कि विवेकानंद हो जाये? और अगर हो गया तो चोर हो जाएगा। हम कहते हैं, महावीर जैसे हो जाओ। अब कोई गलती की है आपने पैदा होकर? अगर महावीर को ही सिर्फ पैदा होने का हक है पृथ्वी पर तो अब तक दुनिया खत्म हो जानी चाहिए। वह हो चुके पैदा, मामला खत्म हो गया। अब आपके होने की क्या जरूरत है? तो महावीर की कार्बनकॉपियों को दुहराने की क्या जरूरत है? जब ओरिजिनल ही हो गई तो अब फिजूल की और मेहनत किस लिए कर रहे हैं? एक महावीर काफी!
नहीं, किसी आदमी को कार्बनकॉपी होने की जरूरत नहीं है। व्यक्तित्व चुराने से बचना, आचरण चुराने से बचना, तब किसी दिन आपकी अपनी आत्मा प्रकट होगी जो अचौर्य को उपलब्ध होती है। और उसके बाद वस्तुओं को तो चुराने का सवाल ही नहीं उठता। वह सवाल ही नहीं है।
यह थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं। यह आप कोशिश करने में मत लग जाना अन्यथा यह मेरा उधार विचार हो जाएगा और चोरी शुरू हो जाएगी। चोरी के बहुत सूक्ष्म रास्ते हैं। हो सकता है आप कहें कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, चलें अब यही करें, चोरी शुरू हो गई। कृपा करके यही मत करना जो मैं कह रहा हूं। मैं जो कह रहा हूं उसे समझ लेना, और छोड़ देना। समझ आपके पास रह जाये, विचार नहीं। परफ्यूम रह जाये, फूल नहीं। मैंने जो बात कही वह समझ लेना, फिर उसे यहीं छोड़ जाना। बात से कोई लेना-देना नहीं, समझ आपके साथ चली जाएगी। वह समझ आपकी जिंदगी को बदले तो बदलने देना, न बदले तो न बदलने देना। कृपा करके ऊपर से थोपने की कोशिश मत करना, अन्यथा चोरी जारी रहेगी। और अचोरी कभी उपलब्ध नहीं हो सकती।
कल चौथे सूत्र अकाम पर हम बात करेंगे। मैंने कहा कि जब हिंसा रूप लेती है तो उसका एक रूप परिग्रह है और जब परिग्रह पागल होता है, विक्षिप्त होता है, तो उसका एक रूप चोरी है। कल अकाम की बात करेंगे। अकाम तीनों का आधार है। काम, वासना, डिजायरिंग, चाह, वह हिंसा का भी आधार है। वह परिग्रह का भी आधार है। वह चोरी का भी आधार है। काम इन तीनों के नीचे बैठा है और सरका हुआ है, सबकी जड़ में वह है। कल हम काम को समझेंगे और परसों अप्रमाद को।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
अचौर्य
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