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ऐसा आदमी नहीं है। और अगर कोई आदमी अभिनेता न रह जाये तो उसके भीतर धर्म का जन्म हो जाता है। ___ हम चेहरे चुरा कर जीते हैं। हम शरीर को अपना मानते हैं वह भी अपना नहीं है, और हम जिस व्यक्तित्व को अपना मानते हैं वह भी हमारा नहीं है। वह सब उधार है। और जिन चेहरों को हम अपने ऊपर लगाते हैं; जो मास्क, जो परसोना, जो मुखौटे लगा कर हम जीते हैं वह भी हमारा चेहरा नहीं है।
बड़ी से बड़ी जो आध्यात्मिक चोरी है वह चेहरों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है।
बेंजामिन फ्रेंकलिन ने अपने बचपन का एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि बचपन से ही मुझे पूर्ण होने की इच्छा है, तो मैंने बारह नियम तय किये थे जिनका उपयोग करके मैं पूर्ण हो जाऊंगा। उन बारह नियमों में समस्त धर्मों ने जो श्रेष्ठ बातों की चर्चा की है वह सब आ जाते हैं। संयम है, संकल्प है, शील है, शांति है, मौन है, सदभाव है...वह सारे बारह, सब अच्छी बातें उन बारह में आ जाती हैं।
बेंजामिन फ्रेंकलिन ने लिखा है कि लेकिन मैं इनको पाऊं कैसे? तो मैंने एक-एक आचरण का अभ्यास करना शुरू कर दिया। मैंने बुरा बोलना बंद कर दिया, और जब बुरा आये तो उसे दबाने लगा, और रोज रात हिसाब-किताब रखने लगा कि आज मैंने कोई बुरी बात तो नहीं बोली। आज मैंने किसी चीज में असंयम तो नहीं किया। आज मैंने कोई अनाचार तो नहीं किया। आज मैंने चोरी की बात तो नहीं सोची। आज मैंने आलस्य तो नहीं किया। वह हिसाब रखने लगा और रोज-रोज अभ्यास साधने लगा, फिर अभ्यास सध गया।
और बेंजामिन फ्रेंकलिन ने लिखा है कि मैंने अपने आचरण को पूरा साध लिया और तब एक ईसाई साधु ने उसे कहा कि तुमने सब तो साध लिया, लेकिन तुम बड़े अहंकारी हो गये हो। स्वभावतः जिसने सब साध लिया वह अहंकारी हो जायेगा। साधा है, सिद्ध हो गया है, तो अहंकार हो जायेगा। तो उस ईसाई फकीर ने कहा कि एक तेरहवां नियम और जोड़ दो-ह्यूमिलिटी, विनम्रता। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कहा कि मैं उसको भी साध लूंगा। उसने फिर ह्यूमिलिटी भी साध ली, उसने विनम्रता भी साध ली। वह विनम्र भी हो गया।
लेकिन अपने संस्मरण में उसने एक वचन लिखा है जो बडा कीमती है। उसने लिखा है कि अंततः लेकिन मुझे ऐसा लगा कि जो भी मेरी उपलब्धि है, इट इज़ जस्ट एन एपियरेंस, वह सिर्फ दिखावा है। जो भी मैंने साध लिया है, वह सिर्फ चेहरा बन पाया है, वह मेरी आत्मा नहीं बन पायी। स्वभावतः जो भी हम बाहर से साधेगे वह चेहरा ही बनता है। जो भीतर से आता है वही आत्मा होती है। ___ हम सब बाहर से ही साधते हैं धर्म को। अधर्म होता है भीतर, धर्म होता है बाहर। चोरी होती है भीतर, अचौर्य होता है बाहर। परिग्रह होता है भीतर, अपरिग्रह होता है बाहर। हिंसा होती है भीतर, अहिंसा होती है बाहर। फिर चेहरे सध जाते हैं। इसलिए धार्मिक आदमी जिन्हें हम कहते हैं, उनसे ज्यादा चोर व्यक्तित्व खोजना बहुत मुश्किल है।
चोर व्यक्तित्व का मतलब यह हुआ कि जो वे नहीं हैं, वे अपने को माने चले जाते हैं,
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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