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देखते हैं एक सुंदर फूल को, तो आहार हो रहा है। आंख सौंदर्य का आहार कर रही है। कान से सुनते हैं एक संगीत को, तो संगीत का आहार हो रहा है। कान ध्वनियों का आहार कर रहा है। किसी के शरीर को स्पर्श करते हैं, हाथ आहार ले रहा है। किसी की सुगंध नासापुटों को छ लेती है, नाक आहार कर रही है। पूरा शरीर आहार कर रहा है, रोआं-रोआं श्वास ले रहा है, रोआं-रोआं स्पर्श ले रहा है। पूरा शरीर ही हमारा आहार यंत्र है। हमारी सारी इंद्रियां बाहर के जगत को भीतर ले जा रही हैं। लेकिन हम सिर्फ भोजन को आहार समझते हैं, उससे भूल होती है।
काम-ऊर्जा के ऊ/करण के लिए समस्त आहार को समझना जरूरी है। क्योंकि हो सकता है, भोजन आपने बिलकुल ऐसा लिया हो जो काम-ऊर्जा को नीचे न ले जाकर ऊपर ले जाने में सहयोगी हो। लेकिन आंख ने ऐसे दृश्य देखे हों कि काम-ऊर्जा को नीचे ले जायें, और कान ने ऐसी ध्वनियां सुनी हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें, और शरीर ने ऐसे स्पर्श किए हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें। तो आहार के पूरे पर्सपेक्टिव को देख लेना जरूरी है।
आंख से भी हम भोजन ले रहे हैं, कान से भी हम भोजन ले रहे हैं, नाक से भी हम भोजन ले रहे हैं, मुंह से भी हम भोजन ले रहे हैं, रोयें-रोयें के स्पर्श से भी हम भोजन ले रहे हैं। चौबीस घंटे हम भोजन कर रहे हैं। बाहर के जगत से बहुत कुछ हममें प्रविष्ट हो रहा है। यह जो प्रवेश हममें हो रहा है, इसके परिणाम होंगे।
स्वभावतः हम जो भी इकट्ठा कर रहे हैं, शरीर में वह कुछ काम करेगा। अगर एक आदमी ने शराब पी ली है तो उसका सारा व्यक्तित्व दूसरा होगा, उसके सारे व्यक्तित्व में मूर्छा छा जाएगी। वह वही काम करने लगेगा जो मूर्छा में संभव हैं। एक आदमी ने शराब नहीं पी है तो वह वे काम नहीं कर सकेगा, जो मूर्छा में ही हो सकते हैं। हम जो भी भोजन ले रहे हैं वह सब परिणाम लाएगा। उसके परिणाम आते ही रहेंगे। ___ मुसोलिनी से एक भारतीय संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ मिलने गए थे। मुसोलिनी ने आमंत्रण दिया था। संगीतज इटली गया था तो उसने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया। तब मुसोलिनी ताकत में था। उसने पं. ओंकार नाथ से भोजन करते समय यह कहा कि मैंने सुना है कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे तो लोग दीवाने होकर उनके आसपास इकट्ठे हो जाते थे! ठीक जाने दें लोगों को, हो जाते होंगे, लेकिन यह विश्वास नहीं होता कि हरिण भी दौड़ आते थे! मोर भी नाचने लगते थे! यह कैसे हो सकता है? पं. ओंकार नाथ ने कहा कि मैं कृष्ण तो नहीं हूं, इसलिए वैसी बांसुरी नहीं बजा सकता, लेकिन थोड़ा-सा क ख ग मैं भी जानता हूं, वह मैं आपको प्रयोग करके ही बताऊं। मुसोलिनी ने कहा, इससे बेहतर क्या होगा।
लेकिन वहां कोई वाद्य-यंत्र भी न था, वहां तो चम्मच-कांटे थे। खाने की मेज पर बैठ कर ये बातें हो रही थीं। तो ओंकार नाथ ने चम्मच और कांटे को उठाकर और चीनी के बर्तनों पर बजाना शुरू कर दिया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया। और
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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