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संसार और संन्यास मनःस्थितियां हैं, मेंटल एटिट्यूड्स हैं। इसलिए परिस्थितियों से भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। परिस्थितियों को बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है । और बड़े आश्चर्य की बात है कि जब मनःस्थिति बदलती है तो परिस्थिति वही नहीं रह जाती। क्योंकि परिस्थिति वैसी ही दिखाई पड़ने लगती है जैसी मनःस्थिति होती है। जो आदमी संसार छोड़कर, भागकर संन्यासी हो रहा है, वह भी अभी संसारी है। क्योंकि उसका अभी विश्वास परिस्थिति पर है। वह भी सोचता है, परिस्थिति बदल लूंगा तो सब बदल जाएगा। वह अभी संसारी है। संन्यासी वह है, जो कहता है कि मनःस्थिति बदलेगी तो सब बदल जाएगा । मनःस्थिति बदलेगी, सब बदल जाएगा, ऐसा जिसका भरोसा है, ऐसी जिसकी समझ है, वह आदमी संन्यासी है। और जो सोचता है कि परिस्थिति बदल जाएगी तो सब बदल जाएगा, ऐसी मनःस्थिति संसारी की है। वह आदमी संसारी है।
मेरा जोर परिस्थिति पर बिलकुल नहीं है, मनःस्थिति पर है। एक ऐसा संन्यासी बच सकता है। और मैं कहना चाहता हूं कि संन्यास बचाने जैसी चीज है।
पश्चिम ने विज्ञान दिया है, वह पश्चिम का कंट्रीब्यूशन है मनुष्य के लिए। पूरब ने संन्यास दिया है, वह पूरब का कंट्रीब्यूशन है संसार के लिए। जगत को पूरब ने जो श्रेष्ठतम दिया है, वह संन्यास है। जो श्रेष्ठतम व्यक्ति दिए हैं, वह बुद्ध हैं, वह महावीर हैं, वह कृष्ण हैं, वह क्राइस्ट हैं, वह मोहम्मद हैं। ये सब पूरब के लोग हैं। क्राइस्ट भी पश्चिम के आदमी नहीं हैं। ये सब एशिया से आये हुए लोग हैं।
शायद आपको पता न हो यह एशिया शब्द कहां से आ गया है। बहुत पुराना शब्द है। कोई आज से छह हजार साल पुराना शब्द है, और बेबीलोन में पहली दफा इस शब्द का जन्म हुआ। बेबीलोनियन भाषा में एक शब्द है ' असू' । 'असू' से एशिया बना। ‘असू' का मतलब होता है, सूर्य का उगता हुआ देश । जो जापान का अर्थ है वही एशिया का भी अर्थ है। जहां से सूरज उगता है, जिस जगह से सूर्य उगा है, वहीं से जगत को सारे संन्यासी मिले।
यूरोप शब्द का ठीक इससे उलटा मतलब है। यूरोप शब्द भी अशीरियन भाषा का शब्द है। वह जिस शब्द से बना है - अरेश - उस शब्द का मतलब है, सूरज के डूबने का देश ; संध्या का, अंधेरे का, जहां सूर्यास्त होता है।
वे जो सूर्यास्त के देश हैं, उनसे विज्ञान मिला है, वैज्ञानिक मिला है। जो सूर्योदय के देश हैं, सुबह के, उनसे संन्यास मिला है। इस जगत को अब तक जो दो बड़ी से बड़ी मिली है, दोनों छोरों से, वह एक विज्ञान की है । स्वभावतः विज्ञान वहीं मिल सकता है जहां भौतिक की खोज हो । स्वभावतः संन्यास वहीं मिल सकता है जहां अभौतिक की खोज हो । विज्ञान वहीं मिल सकता है जहां पदार्थ की गहराइयों में उतरने की चेष्टा हो । और संन्यास वहीं मिल सकता है जहां परमात्मा की गहराइयों में उतरने की चेष्टा हो । जो अंधेरे से लड़ेंगे वे विज्ञान को जन्म दे देंगे । और जो सुबह के प्रकाश को प्रेम करेंगे वे परमात्मा की खोज पर निकल जाते हैं।
यह जो पूरब से संन्यास मिला है, यह संन्यास भविष्य में खो सकता है। क्योंकि संन्यास
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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