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में प्रवेश कर जाते हैं। करना ही होगा। वह जीवन का ही अगला कदम है। परमात्मा संसार की सीढ़ी पर ही चढ़कर पहुंचा गया मंदिर है।
तो पहली बात आपको यह स्पष्ट कर दूं कि संसार और संन्यास में कोई भी विरोध नहीं है। वे एक ही यात्रा के दो पड़ाव हैं। संसार में ही संन्यास विकसित होता है और खिलता है। संन्यास संसार की शत्रुता नहीं है, बल्कि संन्यास संसार का प्रगाढ़ अनुभव है। जितना ही जो संसार का अनुभव कर पायेगा, वह पाएगा कि उसके पैर संन्यास की ओर बढ़ने शुरू हो गए हैं। जो जीवन को ही नहीं समझ पाते, जो संसार के अनुभव में ही गहरे नहीं उतर पाते, वे ही केवल संन्यास से दूर रह जाते हैं। ___तो इसलिए पहली बात मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि मेरी दृष्टि में संन्यास का फूल संसार के बीच में ही खिलता है। उसकी संसार से शत्रुता नहीं। संसार का अतिक्रमण है संन्यास। उसके भी पार चले जाना संन्यास है। सुख को खोजते-खोजते जब व्यक्ति पाता है कि सुख मिलता नहीं, वरन जितना सुख को खोजता है उतने ही दुख में गिर जाता है; शांति को चाहते-चाहते जब व्यक्ति पाता है कि शांति मिलती नहीं, वरन शांति की चाह और भी गहरी अशांति को जन्म दे जाती है; धन को खोजते-खोजते जब पाता है कि निर्धनता भीतर
और भी घनीभूत हो जाती है; तब जीवन में संसार के पार आंख उठनी शुरू होती है। वह जो संसार के पार आंखों का उठना है, उसका नाम ही संन्यास है।
इसलिए ये पांच सूत्र जिनकी हम यहां चर्चा कर रहे हैं, ठीक से समझें तो ये संन्यास के ही सूत्र हैं। और जिसकी आंखें संसार के बाहर उठनी शुरू नहीं हुईं, उसके किसी भी काम के नहीं हैं।
मुझे बहुत से मित्रों ने आकर कहा है कि बात कुछ गहरी है और हमारे सिर के ऊपर से निकल जाती है। तो मैंने उनसे कहा कि अपने सिर को थोड़ा ऊंचा करो ताकि सिर के ऊपर से न निकल जाये। जिनकी आंखें संसार के जरा भी ऊपर उठती हैं, उनके सिर भी ऊंचे हो जाते हैं। और तब ये बातें सिर के ऊपर से नहीं निकलेंगी, हृदय के गहरे में प्रवेश कर जायेंगी। ये बातें गहरी कम, ऊंची ज्यादा हैं। असल में ऊंचाई ही गहराई भी बन जाती है। और ऊंची कोई अपने आप में नहीं है। हम बहुत नीचे, संसार में गड़े हुए खड़े हैं, इसलिए ऊंची मालूम पड़ती है। ऊंचाई सापेक्ष है, रिलेटिव है। __और एक बात ध्यान रहे कि संसार से थोड़ा ऊपर न उठे, संसार से ऊपर थोड़ा देखें। रहें संसार में, कोई हर्ज नहीं। तो जमीन पर खड़े होकर भी आकाश के तारे देखे जा सकते हैं। खड़े रहें संसार में, लेकिन आंखें थोड़ी ऊपर उठ जायें तो ये सारी बातें बड़ी सरल दिखाई पड़नी शुरू होती हैं। वर्ना संसार की बातें रोज कठिन होती चली जाती हैं। कठिन होंगी ही, क्योंकि जिनका अंतिम फल सिवाय दुख के, और जिनकी अंतिम परिणति सिवाय अज्ञान के, और जिनका अंतिम निष्कर्ष सिवाय गहन अंधकार के कुछ भी न होता हो, वे बातें सरल नहीं हो सकतीं, जटिल ही होंगी। चीजें दिखाई कुछ पड़ती हैं, हैं कुछ, और भ्रम कुछ पैदा होता है, सत्य कुछ और है। लेकिन हम संसार में इस भांति खोए होते हैं कि अन्य
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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