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लेकिन वे स्वर्ण-युग कभी नहीं आये, और आदमी सदा से काटा जा रहा है। न तो रूस में आया वह स्वर्ण युग, न चीन में आया; न वह जर्मनी में आया, न वह इटली में आया। सारी दुनिया में कितनी क्रांतियां हो चुकीं, कितने खून हो चुके, पर वह स्वर्ण-युग आता ही नहीं! पुरानी क्रांतियां खत्म हो जाती हैं, नई क्रांतियां फिर खून करने लगती हैं, पर वह स्वर्णयुग नहीं आता है! हजारों साल का अनुभव यह कहता है कि आदमी हिंसा करना चाहता है, इसलिए हिंसा के लिए फिलॉसफीज खोज लेता है, दर्शन खोज लेता है। यह इतिहास की
अनिवार्यताएं नहीं, यह व्यक्तियों के भीतर हिंसा की अनिवार्यताएं हैं, जिनके लिए वह इतिहास को मोड़ देता रहता है और इतिहास को भी आधार बना लेता है अपनी हिंसा का। ___मेरे लिए अनिवार्यता को स्वीकार करना ही मनुष्य की गरिमा को खो देना है। जो यह कहता है कि कोई अनिवार्यता है जिसे मुझे जीना ही पड़ेगा, वह आदमी गुलाम है, उसने अपनी आत्मा को खो दिया है। जो आदमी कहता है कि कोई अनिवार्यता नहीं है जिसे मुझे मजबूरी में कुछ करना पड़ेगा, जो भी मैं करूंगा वह मेरा चुनाव है, वह आदमी आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। निर्णय, डिसीजन ही मनुष्य के भीतर संकल्प और आत्मा का जन्म है।
शेष कल।
ब्रह्मचर्य (प्रश्नोत्तर)
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