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- मालूम कितनी पर्तें हैं दबे हुए वेगों की । उन वेगों के कारण हिंसा की वृत्ति का दर्शन नहीं हो पाता। उसके कारण नेकेड वायलेंस दिखाई नहीं पड़ती। उसके कारण हमेशा ही हमें यही दिखाई पड़ता है कि हिंसा भी हमारी मित्र है, क्योंकि हिंसा का हमें उपयोग करना है। कल कोई दुश्मन होगा, कल कोई हमला करेगा, तो जवाब कैसे देंगे? वे जो बीच में दबे हुए वेग हैं, उनकी लंबी धुएं की पर्तों के कारण हिंसा की नग्नता दिखाई नहीं पड़ती।
ध्यान, वेगों से मुक्ति दिलाकर हिंसा का आमना-सामना, एनकाउंटर करा देता है । और जिस आदमी ने भी हिंसा को देख लिया, वह अहिंसक हो गया । जिस आदमी ने भी हिंसा को पहचान लिया, उसके हिंसक होने के फिर उपाय नहीं रह जाते। क्योंकि कोई भी आदमी जान कर नर्क में उतरने को कभी राजी नहीं होता है । और अगर कभी कोई नर्क में उतरता है, तो वह नर्क को स्वर्ग समझकर ही उतरता है । कोई आदमी कभी आग की लपटों में नहीं उतरता और अगर उतरता है तो आग की लपटों को स्वर्ग का द्वार समझकर ही उतरता है ।
ध्यान विसर्जन है, निर्जरा है, कैथार्सिस है। ध्यान का अर्थ है : आपके भीतर जो हो रहा है, उसे अकारण प्रकट हो जाने दें - किसी पर नहीं, शून्य में। उसे शून्य को समर्पित कर दें।
अब जब क्रोध आये, तो एक छोटा-सा प्रयोग करके देख लें। जब क्रोध आये, तो द्वार बंद कर लें और खाली कमरे में क्रोधित हो जायें । पूरा क्रोध कर लें खाली कमरे में। बहुत हंसी आयेगी, क्योंकि बड़ा अजीब मालूम पड़ेगा, एब्सर्ड मालूम पड़ेगा । सदा क्रोध दूसरों पर किया है, लेकिन एक बार अकेले में करके देख लें और तब दूसरे पर करना मुश्किल होता जायेगा। पहली दफे अकेले में हंसी आयेगी और दूसरी दफे से दूसरे पर करने में हंसी आने लगेगी। क्योंकि जो पागलपन आप अकेले में भी नहीं कर सकते, वह पागलपन आप सबके सामने कैसे कर सकते हैं? और जो पागलपन अकेले में भी हंसी लाता है, वह चार आदमियों के सामने करके लोगों के मन में आपकी क्या तस्वीर बनाता होगा? इसकी कल्पना कमरे में आईना रखकर और दिल खोलकर क्रोध कर के देख लें। तोड़ना ही हो, तो आईने को तोड़ देना। और उस सारे विध्वंस के बीच खड़े होकर देखना कि आपके भीतर किस तरह जहर हैं! इनकी निर्जरा होगी। इनकी कैथार्सिस होगी। ये गिर जायेंगे । और इनके गिरने A बाद आप अपनी हिंसा को देखने में समर्थ हो सकेंगे।
हिंसा से मुक्ति के लिए हिंसा का दर्शन अनिवार्य है।
ओशो, आपने कहा है कि काम-क्रीड़ा में सूक्ष्म हिंसा है। लेकिन क्या संभोग दो व्यक्तियों के परस्पर संपर्क से बायोलाजिकल सुख पैदा करने का आयोजन नहीं है? क्योंकि इस घटना के सुख में दोनों भागीदार होते हैं, इसलिए क्या इसमें म्युचुअल, परस्पर सहानुभूति और प्रेम आधार नहीं है ?
ऋषभ से लेकर पार्श्व तक, धर्म को चार सूत्र दिए गए थे। कहें कि धर्म का रथ चार
ब्रह्मचर्य (प्रश्नोत्तर)
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