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रीइस्टेबलिश कर रहा है अपनी पुरानी इज्जत को, अपनी ही आंखों में। और जैसे ही वह पुनर्स्थापित हो जायेगा, कल फिर घुसा मारने के लिए तैयार हो जायेगा। परसों फिर पश्चात्ताप, फिर घूसा। क्रोध और पश्चात्ताप का एक दुष्ट-चक्र घूमता रहेगा।
और जब हम किसी व्यक्ति को घूसा मारते हैं, तो न केवल पश्चात्ताप होता है, बल्कि वह घूसे का उत्तर देगा, इसकी पुनः तैयारी भी शुरू हो जाती है। इसलिए हिंसा फिर एक दुष्टचक्र बन जाती है, जिसके बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। ___ लेकिन तकिए को अगर एक आदमी घुसा मार रहा है, तो ऐसा कुछ भी नहीं घटता। तकिए को चूंसा मारने में निर्जरा हो रही है। पर्ल्स तकिए को घुसा मारने को कह रहा है, क्योंकि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, वह बहुत आब्जेक्टिव हो गई है। महावीर पच्चीस सौ साल पहले थे। वे कहते, हवा में ही घूसा मार दो, तकिए की क्या जरूरत है? लेकिन हम कहेंगे, हवा में घुसा? तकिए को तो फिर भी मारने जैसा लगता है। वह कम से कम आदमी की पीठ जैसा लगता है, पेट जैसा लगता है! तकिए को घूसा छुयेगा तो ऐसा ही लगेगा कि किसी को छुआ, थोड़ा-सा तो तकिया भी उत्तर देगा।
दुनिया पच्चीस सौ साल में महावीर के बाद वस्तुगत हो गई है। महावीर ने जिस ध्यान की बात की है, उस ध्यान में तकिए की भी कोई जरूरत नहीं है। मैं भी जिस ध्यान की बात करता हं. उसमें भी तकिए की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन शायद अमेरिका में तकिए के बिना घुसा मारना और भी मुश्किल हो जायेगा। वस्तुगत कुछ तो होना ही चाहिए। आदमी न सही, तो तकिया ही सही। ___महावीर तो तकिए को भी मारने को मना करेंगे। वे तो कहेंगे...पर्ल्स को वे तो कहेंगे, इसमें भी थोड़ी-सी हिंसा हो रही है। यह आदमी तकिए में अपने दुश्मन को प्रोजेक्ट कर रहा है। कोई दुश्मन नहीं है, जिसको चोट पहुंच रही है, लेकिन इस आदमी को किसी को मारने का मजा और रस आ रहा है। यह रस भी हिंसा की धारा को थोड़ा-बहुत जारी रखेगा। इससे हिंसा की पूर्ण निर्जरा नहीं हो जायेगी।
इसलिए पर्ल्स की लेबोरेटरी से गए लोग दो-चार-छह महीने बाद फिर वापस आ जाएंगे और कहेंगे कि हिंसा फिर मन में इकट्ठी हो गई। अब फिर उनको तकिया चाहिए और फिर उनको मारना पड़ेगा।
ध्यान की प्रक्रिया कहती है कि आप किसी की फिक्र छोड़ दें, सब्जेक्टिव वायलेंस कर लें। सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब अपने साथ हिंसा करना नहीं है। सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब है, सिर्फ हिंसा को हो जाने दें-बिना किसी आब्जेक्ट के, बिना किसी विषय के, बिना किसी वस्तु के। __एक आदमी अगर ध्यान में चीख मारकर चिल्लाये, चूंसे मारे, नाचे, कूदे, तो उसके भीतर जो हिंसा के दबे हुए वेग हैं, उनकी निर्जरा होती है। वे गिर जाते हैं। एक घंटे भर के किसी भी दिन के प्रयोग के बाद आप इस बात का अनुभव कर सकते हैं कि आपके भीतर के दबे हुए वेग उड़ गए, आप हल्के होकर कमरे के बाहर आ गए। उस दिन दिनभर आप
ब्रह्मचर्य (प्रश्नोत्तर)
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