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बीमारी है | चेतना जैसे ही विकसित होती है, वैसे ही उसका अतीत भी उसके लिए जंजीरें बन जाता है। जो विकासमान है, उसके लिए रोज ही उसका 'कल' बंधन बन जाता है।
इसलिए जिसे विकास करना है, उसे रोज अपने कल को तोड़कर आगे बढ़ जाना पड़ता है। जो अपने अतीत को मिटाने के लिए राजी नहीं है, वह विकसित होने से इनकार कर रहा है । मैं जो कल था, अगर आज भी वही रहूं तो मेरा आज व्यर्थ गया । और यदि मुझे आज विकसित होना है, तो मेरे लिए कल के पार जाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है; द पास्ट मस्ट बी ट्रांसेंडेड । वह जो अतीत है, उसे अतिक्रमण करना ही होगा । अतीत का अतिक्रमण ही विकास है।
मनुष्य का अतीत है, उसकी पशुता; उसका भविष्य है, उसका परमात्मा होना। लेकिन जो पशु को अतिक्रमण न कर पाये, तो वह परमात्मा के मंदिर में प्रवेश भी नहीं कर सकता। और जिसे भविष्य को उपलब्ध करना है, उसे रोज अतीत के प्रति मरना होता है - डाइंग टु द पास्ट । और जो अतीत के प्रति नहीं मर पाता है, वह रुग्ण हो जाता है, वह बीमार हो जाता है। वह रुग्णता वैसी ही है, जैसे एक छोटे बच्चे को पहनाये गये कपड़े, और वह बच्चा जवान होने पर भी उन कपड़ों को शरीर से उतारने से इनकार करे, तो शरीर रुग्ण हो जाये ! शरीर के विकसित होने के साथ ही साथ कपड़ों की बदलाहट जरूरी है। बच्चे के कपड़े बच्चे के लिए स्वाभाविक, युवा के लिए अस्वाभाविक, पीड़ादायी कारागृह बन जाते हैं । बच्चे की वे रक्षा करते रहे होंगे, जवानों के लिए उन कपड़ों से ही अपनी रक्षा करनी जरूरी हो जाती है।
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पशुता मनुष्य का अतीत है। हम सभी उस यात्रा से गुजरे हैं जहां हम पशु थे। वैज्ञानिक भी कहते हैं, और जो आध्यात्मिक हैं, वे भी कहते हैं । डार्विन ने तो अभी-अभी थोड़े ही समय पहले ही घोषणा की कि मनुष्य पशु से आया है। लेकिन महावीर ने, बुद्ध ने, कृष्ण ने तो हजारों वर्ष पहले यह घोषणा की थी कि मनुष्य की आत्मा पशु से विकसित हुई है। मनुष्य की पिछली कड़ी पशु की थी। और अगली कड़ी पर कदम रखने के पहले उसे पिछली कड़ी को तोड़ देना पड़ेगा ।
मनुष्य एक संक्रमण है; एक बीज का सेतु है - जहां से पशु परमात्मा में संक्रमित और रूपांतरित होता है। लेकिन अतीत बहुत वजनी होता है, क्योंकि परिचित होता है। उससे छूटना इतना आसान नहीं है। उससे मुक्त होना इतना आसान नहीं है। क्योंकि ऐसा मालूम होने लगता है कि हमारा अतीत ही हम हैं। लाखों साल बीत गये जब कभी आदमी गुहा - मानव था, पहाड़ों की कंदराओं में रहता था - जहां न आग थी, न रोशनी का कोई उपाय था - उस वक्त रात के अंधकार से जो भय मनुष्य के मन में समा गया था, वह आज भी उसका पीछा कर रहा है।
अब, न आज अंधकार से कोई भय है, न अंधकार किसी गुहा के बाहर घिरा है, न अंधकार में जंगली पशु आदमियों पर हमला करेंगे। लेकिन अंधकार अभी भी भय का कारण है! लाखों-लाखों वर्ष पहले मनुष्य के मस्तिष्क ने अंधकार से जो भय का संस्कार अर्जित
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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