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जयवंतसूरिकृत
बाहाली प्रीति ज पालवइ, हैडइ छइ डमडोल,
तु मुज मनि सुख संपजइ, जउ दइ अविहड बोल. १७३४ गोरी तोरइ कारण, सहियां छइ दुखु अपार, नेह - विछोह करइ रखे, वरि मारे तरवारिं. १७३५
जर जाणी गुणवंत, तु मई केलि म थासिउं बोरडी, रखे अंब न हुइ लोंबडु, वायस चंद नहुइ अंगीठडी, निव गुण मंडइ सरिसव जेतलु, पालइ मेरू समान, सज्जन तणु सनेहडु, जिम जेठइ कुलवंती थोडुं लवइ, पालइ अकुलीणी बोलइ घणुं, क्षणमां आपइ छेह. १७३९
उघाण. १७३८
प्रीति करतां सोहिली, दोहिली पणि पा ंति, अघ-वचि कइ आदरी, साहामूं ते
मंडिउ नेह, देखाडइ छेह. १७३६
नुहइ हंस,
नुहइ सुवंश. १७३७
बालंति. १७४० निर्वही,
तेतु लीजइ भार, जेतु सकीइ प्रीति तणउ व्यवहार, जनम तणउ व्यवहार. १७४१ तुजसिउं कीधी प्रीतडी, हवइ जु आपसि छेह, जण -हासुं मनि उरतु, बिपरि दहइसि देह १७४२
गोरी पाले प्रीति तिम, जिम विन हसइ लोइ, जगि उखाणंउ जिम रहइ, वइरी जीणा होइ. १७४३ सघलइ बदनामी चडी, वइरी आणइ खेस नेह खरु तु जाणसि, जेउ अहवइ पालेसि. १९७४४ नेह रयण तिंम राखये, जिम न पडइ बीसारि, छल जोइ चोरइ रखे, दुरियन-चोर संसारि. १७४५
जण जण बोलि म उभजसि, खेद म आणसि चोंति,
चिन बोल म हैइ घरसि, इणि परि पालइ प्रीति. १७४६ वाहाली तूं गुणवंति छई, घणउं कहिसिउं होइ, प्रोत म छोडसि आपणी, थोडइ घणउ स जोइ. १७४७ प्रीति प्रीति सहू को कहइ, थोडा करी लहंति, ते थोडा पहिं थोडिला, कीधी जे पालंति. १७४८ विगुणां पणि छंडइ नहीं, आदरीआं उमाडि, .... सुख - दुख सही पालीलीइ, हूं बलिहारी तह. १७४९
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