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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला आप तो विवेकी हैं। जिसका जब तक संयोग का योग होता है तभी तक वह रहता है। विवेकी उसे भुलाने का प्रयत्न करते हैं।
(वाराणसी दि २९-११-८२ ई) (१४) शंका- हरिषेण कथाकोश में आ. हरिषेण ने रुक्मिणी के तीर्थंकर प्रकृति का बंध
होना कहा है । परन्तु संसार के अन्य सभी दि. ग्रन्थों में इससे विपरीत कथन है । अत: आप इस विषय में अपना अभिमत देने की अनुकंपा करावें। समाधान - हरिषेण काष्ठासंघी आचार्य थे। पुन्नाट संघ उसी का एक भेद है। मूलसंघी आचार्य तथा दूसरे काष्ठासंघी आचार्य इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते। इसलिए हरिषेण कथाकोश के उल्लेख को आगम नहीं मानना चाहिए। आगम वही बात होती है जो सब आचार्यों की सम्मत हो । जो कथन आचार्य परंपरासम्मत हो उसे ही मानना चाहिए। पत्रोत्तर हेतु आप पोस्टेज नहीं भेजें, हम ही खर्च करेंगे । आपकी शंकाओं के माध्यम से हमारा ज्ञान बढ़ता है। (१५) शंका- धवल पु. १ पृ. २५६ विशेषार्थ अंतिम पंक्ति में लिखा है - “यहाँ जो
वेदना खण्ड के सूत्र उद्धृत किए गए हैं उनमें सप्रतिष्ठित बादर वनस्पति से अप्रतिष्ठित बादर वनस्पति का स्थान स्वतन्त्र माना है। फिर भी यहाँ (धवल १/२५४ से ५५ में) “सव्वत्थोवा... संखेज्जगुणात्ति” इन्हीं सूत्रों में सप्रतिष्ठित के स्थान को अप्रतिष्ठित के स्थान में अन्तर्भूत करके सप्रतिष्ठित वनस्पति का स्वतन्त्र स्थान नहीं बतलाया है।" स्वतंत्र स्थान बतलाया तो है, कैसे नहीं बतलाया ? समाधान - यह विशेषार्थ सम्बन्धी अन्तिम पंक्ति मूल के आधार पर लिखी गई है । यहाँ मूल (संस्कृत-धवला) में बादर निगोद प्रतिष्ठित जीवों को अल्पबहुत्व में अलग से परिगणित नहीं किया है। इस पर जो टिप्पणी है - (बादरणिगोदपदिट्ठिद-पज्जत्ता किमिदि सुत्तम्हि ण वुत्ता ? ण तेसिं पत्तेयसरीरेसु अंतब्भावादो । धवला अपृ. २५०) यह ठीक ही है । इसे पढ़िए । यही प्रश्नोत्तर पु. १ पृ. २७३ में भी आया है जो इस प्रकार है - बादरनिगोदप्रतिष्ठिताश्चार्षान्तरेषु श्रूयन्ते, क्व तेषामन्तर्भावश्चेत् ? प्रत्येकशरीरवनस्पतिस्विति ब्रूमः । इसलिए हमने जो विशेषार्थ लिखा वह ठीक है। हां, अनुवाद को हमने उस स्थल पर मूलानुगामी नहीं लिखा है। इतना अवश्य है । इसी से सम्भवत: आपकी शंका
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