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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला
सूत्र मुनि को पढ़ाकर उन्हें अपने समानधर्मा सहपाठी भूतबलि आचार्य के पास • भेजा 1 तभी उनके द्वारा सत्प्ररूपणा प्रमुख समग्र षट्खण्डागम की रचना होकर ज्येष्ठ शु. ५ को वह पुस्तकारूढ़ हो सका । आगम में वाचना के जो लक्षण उपलब्ध होते हैं, उनसे भी हमारे उक्त तथ्य का समर्थन होता है ।
(स.सि.अ. ९ सूत्र २५)१
हमने “मूलसंघ शुद्धाम्नाय का दूसरा नाम ही तेरापन्थ है " नामक लेख में भी यही लिखा है कि
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ऐसा नियम है कि पूर्वों का अध्ययन श्राविका की बात को तो छोड़िए, आर्यिका को भी नहीं करना चाहिए, ऐसी आगम की आज्ञा है । तथा प्रवचन भी उसे बहिनों में ही करना चाहिए...।
हर बात तर्क से बिठाना और फिर ही मानना, यह मार्ग नहीं है । आगम केवली की दिव्यध्वनि पर से संकलित किया गया है। आनुपूर्वी से मिलान कर उसे प्रमाण रखना, यह अपनी परम्परा है । तर्क उसके (आगम के अनुकूल ही होना चाहिए। मात्र तर्क से निर्णय करना, यह मार्ग नहीं है ।
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(वाराणसी दि. १७-१०-८० ई.)
(१३) शंका - निदानशल्य देशव्रती के होता है या नहीं। उसके निदान आर्तध्यान नहीं होता । इसे स्पष्ट कीजिए । निदान की स्थितित्रय को स्पष्ट कीजिए । मुख्य निर्णेय यह है कि सम्यक्त्वी को कैसा, किस विधा का निदान होता है ।
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समाधान - निदान के विषय में शंका विदित हुई । धार्मिक आचरण के फलस्वरूप आगामी लौकिक उन्नति की कामना करना निदान है ।
तीन स्थितियाँ हैं - एक सम्यग्दर्शन की, दूसरी असंयम की और तीसरी देशसंयम की । श्रद्धा की दृष्टि से निदान का परिहार सम्यग्दृष्टि से यद्यपि भले ही हो जाता है । तथापि असंयम की दृष्टि से बाह्य संयोग की वृद्धि की कामना सम्यग्दृष्टि के होती ही है । यह लौकिक अभिवृद्धि का कारण होता है । इस प्रकार के निदान का भाव सम्यग्दृष्टि के भी होता है । देशसंयमी के भी परिग्रह की मर्यादा के भीतर उसे बढ़ाने का भाव ..... होता है, यह भी लौकिकता का भाव है । इसी अभिप्राय से पाँचवें गुणस्थान तक निदान आर्तध्यान कहा गया है | निदान शल्य देशव्रती के नहीं होती, किन्तु परिग्रह आदि के हानि वृद्धि का भाव तो व्रती श्रावक के भी बना रहता है । यही निदान शल्य तथा निदान आर्तध्यान में अन्तर है ।
१. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री सा. का तुलसी प्रज्ञा खण्ड ६ अंक ९ पृष्ठ ५-६ में प्रकाशित लेख | See Also पं. फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ पृ. ३२७ तथा ५४० में गुरुवर्य पं. फूलचन्द्र जी के स्वयं के उद्गार ।
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२. सम्प्रति यह लेख पं. फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ के पृष्ठ ५३५ से ५४० तक में छपा है ।
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