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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला
७३ “यद्यपि सम्यक्त्व आदि सात प्रकृतियों के क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण हो जाता है फिर भी वह अवगाढ़ व परमावगाढ़ संज्ञा को प्राप्त नहीं होता। पूर्ण श्रुतज्ञान होने पर उसी क्षायिक सम्यग्दर्शन की अवगाढ़ संज्ञा हो जाती है और केवल ज्ञान होने पर परभावगाढ़ संज्ञा हो जाती है। ... क्या क्षायिक व अवगाढ़ सम्यग्दर्शन अपूर्ण है और परभावगाढ़ सम्यक्त्वपूर्ण है । क्या क्षायिक सम्यग्दर्शन, अवगाढ़ सम्यग्दर्शन और परभावगाढ़ सम्यग्दर्शन के अविभाग प्रतिच्छेदों में तरतमता है । सम्यग्दर्शन में तरतमता उत्पन्न करनेवाला दर्शनमोह कर्म नष्ट हो जाने पर क्षायिक सम्यग्दर्शन के अविभागप्रतिच्छेदों में तरतमपने का अभाव हो जाता है । इसी प्रकार चारित्र मोह. कर्म के अभाव हो जाने पर क्षायिक चारित्र के अविभागप्रतिच्छेदों में भी तरतमता का अभाव हो जाता है। जिस प्रकार क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान की अपेक्षा अवगाढ़ व परभावगाढ़ संज्ञा को प्राप्त होते हैं उसी तरह क्षायिक चारित्र भी अयोगी की अपेक्षा परमयथाख्यात संज्ञा को प्राप्त होता है। क्षायिक चारित्र तथा परमयथाख्यात चारित्र के अविभाग प्रतिच्छेदों में हीनाधिकता नहीं है। तेरहवें गुणस्थान के केवलज्ञान (क्षायिक ज्ञान) और चौदहवें गुणस्थान के केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों में भी कोई अन्तर नहीं है । श्री विधानन्द स्वामी ने कहा है— “सयोगकेवलिरत्नत्रयमयोग केवलिचरमसमपर्यन्तमेकमेव” अर्थात् तेरहवें गुणस्थान का रत्नत्रय और १४ वें गुणस्थान का अन्तिमसमय का रत्नत्रय एक ही है - उनमें अन्तर नहीं है।
क्षायिको हि भाव: सकलस्वप्रतिबन्धक्षयादाविर्भूतो नात्मलाभे किंचिदपेक्षते, येन तदभावे तस्य हानि: तत्प्रकर्षे च वृद्धिरिति । (श्लोकवार्तिक १/१/४४-४५) क्षायिक भाव (चाहे कोई भी क्षायिक भाव हो) समस्त स्वप्रतिबन्धक कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है । वह आत्मलाभ में फिर किसी कि आवश्यकता नहीं रखता, जिससे कि उसके बिना तो उस क्षायिक भाव में कुछ कमी आ जाए तथा उसके होने पर बढ़ोत्तरी ।"
जैनगजट दि. ३०.१.६७ पृष्ठ ९
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद सब दिन सब गुणस्थानों में तथा सर्वत्र एक समान ही रहता है।
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