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________________ ७२ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (व.ति.य.) के आधार से ही लिखा गया है । उसमें ऊपर वाला अल्पबहुत्व हुबहू (कुछ भाषान्तर के साथ) है। परन्तु केशववर्णी तथा भ. नेमिचन्द्र ने “जघन्यक्षायिकलब्धि अविभाग प्रतिच्छेद कलापराशि:” ही शब्द दिया है। (द्रष्टव्य - गो.जी.१/२१८ ज्ञानपीठ) इसमें “तिर्यंगगत्यसंम्यग्दृष्टौ” तथा “सम्यक्त्व" विशेषण नहीं जोड़े। इन दोनों की बात मूल त्रिलोकसार अवरा खइयलद्दी.. गा.७१ की अनुसारिणी है, अत: वही ग्राह्य है । क्योंकि त्रि.सा. गा.७१ मूल, लब्धिसार १६६ (अवरं तु खइयलद्दी...) राजवार्तिककार आत्यन्तिकी (सम्पूर्णा) विशुद्धिः क्षय: इत्युच्यते रा.वा.२/९/२, श्लोकवार्तिककार (१/१ श्लोक ४४-४५ क्षायिक भावानां न हानि: नापि वृद्धि) आदि के भावों के अनुकूल ही जीवतत्त्वप्रदीपिका का वह वाक्य है । इधर त्रिलोकसारीय संस्कृत टीका का वह वाक्य उक्त सभी में से किसी से भी समर्थित नहीं होता अत: अवश्य ही यह वाक्य "तिर्यग् गत्यसम्यग्दष्टौ” तथा “सम्यक्त्वरूप” बाद में लिपिकारों की भूलवश प्रक्षिप्त हुआ होना चाहिए। त्रिलोकसार की संस्कृत टीका तो गाथा ६८ में भी त्रुटित हुई है। वहाँ भी “अत्र वर्गशलाकादीनामनुत्पत्ति.....बिरलनदेयरूपेणोत्पन्नत्वात्” यह टीका वाक्य गलत है । क्योंकि सूच्यंगुल के अर्द्धच्छेद भी द्विरूपवर्गधारा में उत्पन्न होते हैं (धवल १४/३७४-७५) तथा उसके प्रथमादि वर्गमूल भी । मात्र उसकी वर्गशलाका उत्पन्न नहीं होगी। अत: गा.६८ की टीका में जो सच्यंगल को “उप्पज्जदिजो राशि..." का उदाहरण स्वरूप लिखा है, वह गलत है। गा.७३ तो समान विरलन व समान देय क्रम से समुत्पन्न राशि (आवली आदि संख्या) के लिए ही लगता है । सूच्यंगुल समान विरलन समान देय क्रम से उत्पन्न नहीं है। इस तरह त्रि. सा. की गा. ७१की टीका का वाक्य तिर्यग्गत्यसंयतसम्यग्दृष्टौ जघन्यक्षायिकसम्यक्त्वरूपलब्धेः, ठीक नहीं प्रतीत होता। यहाँ 'तिर्यग्गति' शब्द भी सार्थक नहीं लगता, क्योंकि तिर्यंचों में तो कोई क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता नहीं (ल.सा.११०), फिर जो मनुष्य दर्शनमोह की क्षपणाकर तिर्यंचों में जाएँगे, क्या उनके वह क्षायिक सम्यक्त्व कम पड़ जाएगा क्या, और देवगति में जाने पर बढ़ जाएगा क्या। जिससे कि “तिर्यग्गति” शब्द आया है। ब्र. रतनचन्द मुख्तार ने कहा भी है कि : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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