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________________ ५२ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (३) ऐसे ही कथन त्रिलोकसारादि से भी जानने चाहिए । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि पण्डित जी सा. यहाँ भी भूल कर गए हैं। बिन्दु झ व त्र में पण्डित सा. लिखते हैं कि दो बार आयुबंधक के आगामी भव में द्वितीय बार की आयु का ही उदय होता है, पर सत्ता में दोनों आयु रहती है । यह कथन उनकी पूर्णत: कर्मसिद्धान्त-विषयक भूल का परिचायक है। नियम यह है कि शेष भुज्यमान आयु प्रमाण ही आबाधा होने से (देखो-आयुबंध संबंधी विशिष्ट नियम नं.२०) निश्चित रुप से दोनों आयु कर्म के निषेक साथ-२ उदय में आएंगे। इसी तरह मान लो किसी जीव ने आठों अपकर्षों में आयु बांधी है तो आगामी भव में आयु का उदय होने पर आठों अपकर्षों सम्बन्धी निषेक साथ-साथ में उदित होंगे। क्योंकि सभी आयु : समयप्रबद्धों की आबाधा तो पूर्व भव में ही पूरी हो गई अत: सभी के प्रथम निषेकों का उदय आना यहाँ (वर्तमान भव के प्रथम समय में) अत्यन्त न्याय्य है । इसीलिए तो प्राय: सर्व कर्मों के एक एक समयप्रबद्ध का उदय(अर्थात् असंख्यात निषेक समुदाय का युगपत् उदय) प्रतिसमय कहा जाता है । (गो. जी. २५८ टीका) बिन्दु ड में पण्डित जी ने लिखा है कि जिस मरण में अपकर्षण व उदीरणा होते हैं वह मरण अकाल मरण है । सो यह भी अत्यन्त त्रुटित कथन है । चारों ही गतियों में चारों भुज्यमान आयुओं की उदीरणा प्रतिसमय प्राय: होती ही रहती है । मनुष्यायु की उदीरणा छठे गुणस्थान तक निरन्तर होती ही रहती है। शेष तीन आयुओं की उदीरणा भी अपनेअपने सम्भव गुणस्थानों में निरन्तर होती रहती है । मात्र इतनी विशेषता है कि चारों आयु की उदीरणा उस-उस भव में मरण की अन्तिम आवली के समय नहीं होती। शेष सर्वत्र, आपके हमारे आयु कर्म की उदीरणाअभी निरन्तर होती रह रही है । केवल इतनी विशेषता है कि आपके हमारे मरण के समय अन्तिम आवली काल में उदीरणा नहीं होगी, तब मात्र उदय ही होगा। (पंचसंग्रह प्रा. पृष्ठ ५१९-२२ ज्ञानपीठ, सर्वार्थसिद्धि ज्ञानपीठ सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री का सम्पादन पृ.३४६-४७, राजवार्तिक पृ. ७३९-९४ भाग II ज्ञानपीठ, रा.वा. ९/३६/८-९ पृ. ६३१-३२ मूल, गो.क. २७८, करणदशक पृ. ६५ आदि) तथा जहाँ उदीरणा होती है वहाँ अपकर्षण भी नियम से होता ही है, क्योंकि उदीरणा अपकर्षण पूर्वक ही होती है। जे कम्मक्खंधा ओक्कड्डिदूण फलदाइणो किरंति तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा अर्थ - जो कर्मस्कन्ध अपकर्षित कर फलदायक किए जाते हैं उनकी उदीरणा यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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