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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला उन्हीं के शब्दों में :(क) पृ. ३०८-९-१० पर लिखा है - किसी जीव के पहले १०० वर्ष आयु का बंध
हुआ। जिस समय आयु कर्म का बंध हुआ उस समय आयु का स्थिति अनुभाग बंध भी हुआ। बाद में परिणाम विशेष के कारण ६० वर्ष की आयु का बंध हुआ। जिस समय ६० वर्ष की आयु का बंध हुआ उस समय जिस समय
आयु के १०० वर्षों का बंध हुआ था उस समय जो स्थिति- अनुभाग का बंध हुआ था उस समय के स्थिति अनुभाग बंध से ६० वर्षों के बंध के समय होने वाले (बंधने वाले) स्थिति व अनुभाग के कम होने का नाम ही अपकर्षण है। यदि १०० वर्षों का पूर्व में होने वाला बंध ही नहीं होता तो उस समय स्थिति व अनभाग बंध ही नहीं होने पाते । तो फिर इन (दीर्घ) स्थिति- अनभाग बंधों के अभाव में ६० वर्ष वर्षों की आयु बंध के समय होने वाले स्थिति बंध तथा अनुभाग बंध कम होते हैं ऐसा कैसे कहा जा सकता है । तो फिर अपकर्ष का भी अभाव हो जाता है । बध्यमान आयु में होने वाले अपकर्षण का अभाव होने से भुज्यमान आयु में उदीरणा कैसे होगी ।..... १०० वर्ष की आयु का बंध होने के अनन्तर जब परिणाम विशेष के कारण ६० वर्ष की आयु का बंध होता है । तब १०० वर्ष की आयु का अपवर्तन होता है, अत: १०० वर्ष की
आयु ही अपवायु कही जाती है ।( पृ.३०९) (ख) केवली भगवान् के ज्ञान में पहले (एक बार) बंधे हुए आयु की अपेक्षा जो
मरण होने वाला था वह न होकर बाद में बंधे हुए आयु की अपेक्षा जो मरण होता है उसी को अकाल मरण कहते हैं। वस्तुत: पूर्वबद्ध आयु की अपेक्षा मरण न होकर उत्तर काल में बंधे हुए आयु की अपेक्षा होने वाला मरण अकाल
मरण ही है, स्वकालमरण नहीं । (पृ.३१०) (ग) आयुबन्ध कुर्वतां जीवानां परिणामवशेन बध्यमानस्य आयुष: अपवर्तनम् अपि
भवति। तदेव अपवर्तनघात इत्युच्यते। उदीयमानायुरपवर्तनस्य एव कदलीघाताभिधानात् अर्थ - आयुकर्म का बन्ध करने वालों जीवों के परिणामवश बध्यमान आयु
का अपवर्तन भी होता है। वही अपवर्तनाघात कहा जाता है। क्योंकि उदीयमान आयु के अपवर्तन को ही कदलीघात कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि बध्यमान आयु की स्थिति और अनुभाग में जिस प्रकार अपवर्तन होता है उसी प्रकार भुज्यमान आयु की स्थिति और अनुभाग में
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