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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला
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विद्वान् के रूप में रहे । फिर यह चर्चा इन्हीं के द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित भी हुई। धवल, महाधवल का कार्य आपने १९५८ ई. में पूरा किया, तथा जयधवल का कार्य आपने जून, १९८८ में पूरा कर दिया ।
पं.
मेरा सौभाग्य है कि इस पूर्णिका में संशोधक के रूप में मैं भी शामिल हुआ तथा गुरु स्व. रतनचन्द्र मुख्तार द्वारा प्रदर्शित सूक्ष्मतम सैद्धान्तिक संशोधन भी इसमें गुरुजी फूलचन्द्र ने लिए। जयधवल १६ के अन्त में प्रदत्त १६ भागों के शुद्धाशुद्धपत्रक में स्व.ब्र. रतनचन्द्र मुख्तार के द्वारा दर्शित अशुद्धि शुद्धि ६४८ तथा मेरे द्वारा दर्शित शुद्धाशुद्ध २१३ मुद्रित हुए हैं। इसी विशाल एवं सूक्ष्म शुद्धिपत्रक को तैयार करने हेतु मार्च ८८ ई. में गुरुजी के पास हस्तिनापुर गया था तथा ० दिन वहाँ रहा था। गुरुजी को अब (फरवरी ८८ में) सुनाई देना भी मन्द पड़ गया था तथा स्वास्थ्य भी गिरा-गिरा सा रहने लग गया था । स्मृति बहुत शिथिल हो गई थी। साथ ही माताजी भी वृद्ध, अन्धी तथा फ्रैक्चरवश स्वयं चलने में असमर्थ हो चुकी थीं। मैं देख-देख कर रोता था ।
में
इसके सिवा स्व. गुरुजी के सान्निध्य में रहने का सौभाग्य मुझे अक्टु. सन् ८१ बनारस में, जून ८४ में जबलपुर वाचना में तथा अप्रेल से जून ८७ में सम्पन्न ललितपुर वाचना में भी क्रमशः प्राप्त हुआ था । अतः मैं अपने आपको भाग्यशाली मानता हूँ । आज जो कुछ मैं हूँ वह स्व.ब्र. रतनचन्द्र मुख्तार (सहारनपुर) तथा स्व. गुरु पं. फूलचन्द्र जी की ही परम कृपा का फल है ।
११. अवसान - जिनवाणी की सम्पूर्ण मनोयोग से सेवा करते-करते वह दुबला-पतलालंबा व वृद्ध, धोती जब्बे वाली देह में स्थित महात्मा, आखिर दि. ३१-८-९१ को प्रात: १०.३० बजे पर इस संसार से चल बसा। आपके चरम दिनों में आपके पुत्र डॉ० अशोक जी तथा पुत्रवधू श्रीमती नीरजा ने पर्याप्त सेवा की थी, इसमें शंका
कोई अवकाश नहीं है । पूज्य गुरुजी अपने पुत्र में उन श्रेष्ठ संस्कारों को छोड़ गए हैं जिनके फलस्वरूप आज भी डॉ० अशोक जी उनकी स्मृति में जिनवाणी की ज्योति जगाने में बराबर तत्पर हैं ।
पं.सा. बड़े ही सज्जन, सरल तथा सादे जीवनमय थे । झगड़ों से दूर तथा आगमसेवा में अनवरत अनुरक्त रहते थे । विस्तृत व्यक्तित्व उनके अभिनन्दन ग्रन्थ से ज्ञातव्य
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है ।
प्रमुख सम्मान व पुरस्कार
१.
सन् १९६२ में जैन सिद्धान्त भवन, आरा की हीरक जयन्ती के उपलक्ष्य में बिहार
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