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________________ पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला ___शाकाहार के अभियान चल पड़े हैं, जिसमें तीर्थंकर, अर्हत् वचन, णाणसायर, जैनमित्र आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने, जैन समाज ने, खुले मन और खुले हृदय से इसमें भाग लेना प्रारम्भ किया है। किन्तु स्मरण रहे कि जैन, सूखी सब्जियों आदि पर ही श्रद्धा रखते रहे हैं—जैसे गेहूँ, अक्षत, दाल आदि । फल फलों, आदि का भी निषेध, जड़ रूप वनस्पति आदि निगोद जीव के निवास वाले कंदादि, बड़,ऊमर, कठूमर आदि का भी त्याग करते रहे हैं । अत: विकल रूप से यह अभियान नियंत्रण भी चाहता है और देखें कि सूखने पर कौने से दीर्घायु और स्वास्थ्यप्रद तत्त्व आ जाते हैं जो सचित्त सब्जियों में नहीं होते हैं। सचित्त सब्जियों में एकेन्द्रिय जीव तो हैं ही, साथ ही अनेकेन्द्रिय जीव भी हो सकते हैं जो स्वास्थ्य के लिए, धर्म के लिए हानिकर सिद्ध हो सकते हैं। मांसाहार तो पूर्णत: हर रूप में मद्य मधु के साथ तो वर्जित हैं ही, क्योंकि उसमें सदैव त्रसकाय के जीवों की उत्पत्ति मानी जाती है । इसी वैज्ञानिकता को लिए जैन धर्म ने पड़ोस, समाज, राष्ट्र, विदेश सभी को प्रभावित किया है । समाज विज्ञान यही है जिसने सदैव जीव हित में ही कार्य किया है । [53] राजनीति विज्ञान, अर्थनीति विज्ञान, भैषज विज्ञान, यांत्रिकी विज्ञान, समस्त कला विज्ञान आदि में इसी जन कल्याण, जीव मात्र कल्याण की भावना ओतप्रोत रही है। यही वैशिष्ट्य है जैन धर्म एवं उसके दर्शन में निहित वैज्ञानिकता का । जगदीशचन्द्र बसु ने एकेन्द्रिय जीवों की संवेदना मापक यंत्र बनाकर पूरे विश्व को विचलित कर दिया। [54] यह एक ऐसा आविष्कार था जो करोड़ों आविष्कारों के तुल्य था कि जीव पीड़ा को परखा जाय और उससे परहेज किया जाये, और त्याग की ऐसी वैज्ञानिकता ही मांसाहार, शाकाहार से दूर एक ऐसे अमोघ वर्ष की सृष्टि में ले जा सकती है जहाँ बिना परपीड़ा के आहार स्वमेव बन जाता हो, प्राप्त हो जाता हो, जिसे भोग भूमि या स्वर्ग स्थल कहा जाता हो, या रामराज्य ही कहा जाता हो। जैन धर्म में ध्यान की उत्कृष्टता चौदह पूर्व या दस या नौ पूर्व तक के श्रुत को ही दी है, अत: यदि व्यक्ति इन पूर्वो के छुपे रहस्यों को उद्घाटित करता है, शोध करता है, तो वह ऐसी भोग भूमि या स्वर्ग या अंतत: स्वातंत्र्य, मुक्ति, मोक्ष के परिणाम तक पहुँच सकता है, अपने पदचिह्न छोड़ सकता है, जैसा कि शलाका पुरुष करते आये हैं तथा तीर्थंकर, अवतार आदि करते आये हैं । विज्ञान एक ऐसा संतुलन सिखाता है, यदि उसकी कषाय या मिथ्यात्व वश उपेक्षा न की जाये, कि उसके द्वारा अहिंसात्मक ढंग से जीवन बिताया जा सकता है, कर्मोदय होते हुए भी ऐसे परिणामों में स्थिर किया जा सकता है जहाँ भोग भूमियों और स्वर्गों से भी अनन्त गुणे आनन्द को प्राप्त कराया जा सकता है वहीं स्वतंत्रता के लिए कदम बढ़ते हए होते हैं और चिर, अनन्त शांति सुख, अनन्त बल के साथ निवास करते हैं। संवेग और निर्वेद विज्ञान की.प्राप्ति होते ही ध्यान की पराकाष्ठा तक पहुँचा जा सकता है । वही ध्यान,जो धर्म या शुक्ल है उत्तरोत्तर उन ऊँचाइयों तक ले जा सकता है जहाँ स्वतन्त्रता का चरम केन्द्र बिन्दु होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004019
Book TitleJain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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