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________________ 6 11. कल्याणवाद (श्वेताम्बर परम्परानुसार अबन्ध्य) में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारागणों को नाना गतियों में देखकर शकुन के विचार, तथा बलदेवों, वासुदेवों, चक्रवर्तियों आदि महापुरुषों के गर्भावतरण आदि के अवसरों पर होने वाले लक्षणों और कल्याणों का वर्णन । (अबन्ध्य = अवश्यम्भावी भविष्य ) प्राणावाय पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला 12. आयुर्वेद (काय-चिकित्साशास्त्र) का प्रतिपादन एवं प्राण अपान आदि वायुओं का शरीर धारण की अपेक्षा से कार्य का विवरण । - 13. क्रियाविशाल - लेखन, गणना आदि बहत्तर कलाओं, स्त्रियों के चौंसठ गुणों, शिल्पों, ग्रंथ रचना संबंधी गुणदोषों और छन्दों आदि का प्ररूपण Jain Education International 14. लोकबिन्दुसार - जीवन की श्रेष्ठ क्रियाओं और व्यवहारों एवं उनके निमित्त से मोक्ष के सम्पादन विषयक विचार | इस प्रकार पूर्वों में धार्मिक, दार्शनिक व नैतिक विचार तो संकलित किये गये थे, किन्तु उनमें विभिन्न कलाओं, ज्योतिषशास्त्र, आयुर्वेद आदि विज्ञानों, फलित ज्योतिष, शकुनशास्त्रादि, वा पंच-तंत्र आदि विषयों को भी शामिल किया गया था । यह ज्ञात है कि आचार्य भद्रबाहु (चतुर्थ शताब्दी ई.पू.) चौदह पूर्वों के तथा अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे । दक्षिण भारत के शिलालेखों के अनुसार उनके शिष्य प्रभाचंद्राचार्य (सम्राट् चन्द्रगुप्त), भी दस पूर्वी थे । उनका बारह वर्ष तक श्रवण बेलगोला के चन्द्रगिरि पर समस्त संघ से विलग होकर समाधि साधन काल तक रहना कोई विशेष साधना का द्योतक है । अशोक के शिलालेखों से पूर्व कोई भारतीय लिपि न होना, तथा मेगास्थिनीज़ का कथन इस ओर संकेत करते हैं कि प्रभाचंद्राचार्य ने अपनी सम्राट् अवस्था के यूनानी लिपि ज्ञान का उपयोग कर्म सिद्धान्त ( द्वितीय पूर्व में समाहित) को लिपिबद्ध करने हेतु ब्राह्मी एवं सुन्दरी (भाषा एवं गणित ) नाम की दो लिपियों का आविष्कार करने में आचार्य भद्रबाहु को सहयोग दिया । एतद्विषयक लेखों को विशद रूप में अर्हत् वचन पत्रिका के विभिन्न अंकों में वक्ता द्वारा प्रकाशित कराया गया है । कई जैन ग्रन्थों में इन लिपियों का उल्लेख अलग अलग रूप में मिलता ही है, साथ ही वीर निर्वाण से लगभग सात शताब्दियों पश्चात् हुए गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी आचार्य धीरसेन के शिष्यों, पुष्पदन्त और भूतबलि को हीनाक्षरी, घनाक्षरी मंत्रों को सिद्ध करने देना, पुन: ब्राह्मी, सुन्दरी लिपियों से संबंधित प्रतीत होता है । उन्होंने षट्खंडागम की सूत्ररूप रचना लिपिबद्ध की थी, जो गुणधर आचार्य द्वारा रचित (पाँचवें पूर्व में समाहित) कसायपाहुडसुत्त से ज्यादा काल दूरी नहीं लिए हुए थी । इन लिपियों की रचना For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004019
Book TitleJain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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