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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला ____किन्तु सापेक्षता के गणित विज्ञान को चरम सीमा तक पहुँचा कर भौतिकी में अद्भुत क्रांतिकारी परिवर्तन करने वाले वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने विज्ञान और धर्म को दूसरे ही रूप में देखा और कहा कि बिना धर्म के विज्ञान अपंग है और बिना विज्ञान के धर्म अंधा है । [2] उनके अनुसार विज्ञान यह था, "As to sceince, we may well define it for our purpose as ‘methodical thinking directed toward finding regulative connections between our sensual experiences.' Science, in the immediate, produces knowledge and, indirectly, means of action. It leads to menthodical action if definite goals are set up in advance." [3]
वहीं धर्म के सम्बन्ध में उनका विचार था, "As regards religion, on the other hand, one is generally agreed that it deals with goals and evaluations and, in general, with the emotional foundation of human thinking and acting, as far as these are not predetermined by the inalterable heredity disposition of the human species. Religion is concerned with man's attitude toward nature at large, with the establishing of ideals for the individual and communal life, and with mutual human relationship." [4]
वस्तुत: जैन धर्म की विलक्षणता उपरोक्त दोनों परिभाषाओं को एकसूत्री रूप देकर, उस पर अमल करना ही रही है। सर्वप्रथम हमारी दृष्टि उसके द्वारा निर्वाचित वस्तुनिष्ठ अध्ययन पर आकर्षित होती है, जो ऐसे प्रमुख सिद्धान्तों को विश्व के समक्ष लाया जो अदभत वैज्ञानिक प्रतिभा से ओतप्रोत थे तथा जो अंतत: परिणामों के वैज्ञानिक सिद्धान्त द्वारा जड़चेतन की ग्रंथि को सुलझाने में आधारभूत थे।
ध्वन्यात्मक एवं लिप्यात्मक भाषा एवं गणित निर्माण
साधारणत: साहित्य में दो तत्त्वों का ग्रहण होता है-शाब्दिक या रचनात्मक और आर्थिक या विचारात्मक । इन्हें द्रव्यश्रुत और भावश्रुत कहा गया है । भावश्रुत की अपेक्षा से जन-श्रुतांगों में जो महावीर से पूर्व श्रमण-परम्परा में प्रचलित रचनाएँ थीं, उन्हें पूर्व कहा जाता है । सम्पूर्ण श्रुत द्वादशांग में निबद्ध था और बारहवें अंग दृष्टिवाद में ऐसे चौदह पूर्वो का उल्लेख है जिसमें अनेक विचारधाराओं, मतमतान्तरों और ज्ञान-विज्ञान का संकलन गौतम गणधर द्वारा किया गया था। बारह अंगों के नाम क्रमश: आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति, ज्ञातृ धर्म कथा, उपासकाध्ययन, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र तथा दृष्टिवाद हैं । इनके विशद वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । [5]
चौदह पूर्वो के नाम क्रमश: निम्नलिखित हैं, जो दृष्टिवाद के पाँच अंग-परिकर्म, सूत्र,
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