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________________ आत्मानुशासन की जाती है। अतः इसी तथ्यको व्यक्त करते हुए यह कहा जाता है कि दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धीकी चार इन ७ प्रकृतियोंके उपशमसे उपशमसम्यग्दर्शन होता है । परन्तु दर्शनमोहनीयके समान इसके अनन्तानुबन्धीका अन्तरकरण उपशम नहीं होता इतना सुनिश्चित है। यह प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनका स्वरूप है। इसके सिवाय उपशमसम्यग्दर्शनका एक भेद द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन भी है जो अप्रमत्तसंयत वेदकसम्यग्दष्टि जीव उपशमश्रेणिपर चढ़नेके सन्मुख होता है उसके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके साथ दर्शनमोहनीयके अन्तःकरण उपशमपूर्वक होता है । यह सामान्यसे उपशम सम्यग्दर्शनके दोनों भेदोंका स्वरूप निर्देश है। सम्यग्दर्शनके दूसरे भेदका नाम क्षयोपशम सम्यग्दर्शन है। यह सम्यक्त्वमोहनीयके उदयपूर्वक होनेसे इसका दूसरा नाम वेदक सम्यक्त्व भी है । यह उपशम सम्यग्दर्शन पूर्वक भी होता है और मिथ्यादर्शनपूर्वक भी होता है। इतनी विशेषता है कि जो सम्यग्दर्शनसे च्युत होकर मिथ्यात्व गणस्थानको प्राप्त हुआ है उसके वेदक काल के भीतर ही इस सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना सम्भव है। किन्तु वेदक कालके व्यतीत होनेपर वह मात्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके ही सम्यग्दृष्टि हो सकता है। ___ इसके अनेक भेद हैं। प्रथम भेदमें अनन्तानुबन्धी ४, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदय रहता है और सम्यक प्रकृतिका उदय रहता है। दूसरे भेदमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना रहती है, तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदय और सम्यक् प्रकृतिका उदय रहता है। तीसरे भेदमें अनन्तानुबन्धी ४ की विसंयोजना, मिथ्यात्वकी क्षपणा होकर सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदय और सम्यक्प्रकृतिका उदय रहता है तथा चौथे भेदमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा होकर सम्यक् प्रकृतिका उदय रहता है। कृतकृत्यवेदक सम्यग्दर्शन इस चौथे भेदकी ही संज्ञा है। इन चार भेदोंमेंसे अन्तिम दो भेद, जो वेदक सम्यग्दष्टि जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है उसीके होते हैं। इस प्रकार आगमानुसार वेदक सम्यक्त्वके चार भेद जानने चाहिये । जो प्रवृज्या देनेमें समर्थ योग्य गुरुकी शरणमें जाकर चरणानुयोगके अनुसार २८ मूलगुणोंको अंगीकार करते हैं ऐसे कोई द्रव्यलिंगी साधु प्रवृज्या लेनेके अनन्तर या कालान्तरमें आगमानुसार जीवादि तत्त्वोंके अभ्यासपूर्वक प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनके साथ या वेदक सम्यग्दर्शन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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