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प्रस्तावना आगमकी संकलना की है; इसलिये मादृशः जनोंको नयज्ञान न होनेसे ऐसी विडम्बनाकी स्थिति बन जाती है जो युक्तियुक्त नहीं है । अतः आगमके सर्वांग कथनको स्वीकार करना ही मोक्षमार्गमें प्रयोजनीय माना गया है ऐसा मानकर ही मुनि या श्रावकको अपने श्रद्धानको आगमानुकूल बना कर दृढ़ करना चाहिये।
७. सम्यग्दर्शनके उत्तर भेदोंका विशेष स्पष्टीकरण
आत्मानुशासनमें भदन्त गुणभद्रने सम्यग्दर्शनके जो दस भेद किये हैं सो उन भेदोंके करनेमें मिथ्यात्व आदि कर्मोंके उपशमादिकी विवक्षा न होकर ज्ञानावरण कर्मके क्षय क्षयोपशम आदिकी विशेषता स्पष्टतः परिलक्षित होती है । मात्र जो औपशमिक आदि तीन भेद किये गये हैं उनके होनेमें अवश्य ही मिथ्यात्व आदि कर्मोंका उपशम, क्षय, क्षयोपशम मुख्य है । उनमें प्रथम औपशामिक सम्यग्र्शन है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके सबसे पहले प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की ही उत्पत्ति होती है। यदि एक बार सम्यग्दर्शन होनेके बाद वह मिथ्यादृष्टि हो भी जाय और वेदककालके भीतर वेदक सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति न होकर वह मिथ्यादृष्टि ही बना रहे तो पुनः वह प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके ही सम्यग्दृष्टि हो सकता है।
अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके एक मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्मके साथ २६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, किन्तु सादि मिथ्यादृष्टि जीवके २८, २७ और २६ प्रकृतियोंकी सत्ता बन जाती है । जिस सादि मिथ्यादृष्टि जीवने सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना नहीं की है उसके २८ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है । जिसने सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना कर ली है उसके २७ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है और जिसने सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति दोनोंको उद्वेलना कर ली है वह सादि मिथ्यादृष्टि होते हुए भी उसके २६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है। ये तीनों ही प्रकारके जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शको प्राप्त करनेके अधिकारी हैं।
इस सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति दर्शनमोहनीय कर्मके अन्तरकरण उपशमपूर्वक होती है। अनन्तानुबन्धीकर्मका अन्तरकरण उपशम नहीं होता । मात्र जिस समय यह सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन करण करके अन्तरकरण उपशमपूर्वक दर्शनमोहनीय कर्मकी प्रथम स्थितिको गलाकर प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि होता है उसी समय इस जीवके अनन्तानुबन्धीका अनुदय होनेसे इसकी भी अनुदयोपशमके रूपमें परिगणना
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